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________________ अनुवाद-जी-१०१, 102 523 2569. साधु को वंदना करके राजा उसे सुखपूर्वक आसन पर बिठाता है और कौतूहल वश साधु से गंभीर अर्थ वाले कभी नहीं सुने हुए प्रतिहाररूपी, राजरूपी और श्रमणरूपी शब्दों के अर्थ पूछता है। पाराञ्चित मुनि राजा को उसका अर्थ कहना प्रारम्भ करता है२५७०. राजन् ! जैसे शक्र आदि के आत्मरक्षक होते हैं, आपका यह द्वारपाल वैसा नहीं है इसलिए मैंने प्रतिहाररूपी शब्द का प्रयोग किया है। तुम भी चक्रवर्ती के समान नहीं हो लेकिन चक्रवर्ती के प्रतिरूपी हो अतः मैंने आपके लिए राजरूपी' शब्द का प्रयोग किया। 2571. साधु अठारह हजार शीलांग को धारण करने वाले होते हैं लेकिन मैं अतिचार सेवन के कारण श्रमणप्रतिरूपी हूं। 2572. हे नरेश्वर! मैं अभी संघ से निष्कासित हूं। अभी श्रमणों के क्षेत्र में भी नहीं रह सकता। मैं अभी प्रमाद के कारण होने वाले अतिचार की विशोधि कर रहा हूं। 2573, 2574. धर्मकथा से आकृष्ट राजा मुनि से राजभवन में आने का प्रयोजन पूछता है। मुनि उसे प्रयोजन बताता है। वह इन चार कारणों में से कोई भी एक हो सकता है 1. वाद-पराजय से राजा कुपित हो गया हो। 2. चैत्य द्रव्य उनके द्वारा बंधक हों। 3. संयती आदि को मुक्त करने के लिए। 4. संघ को देश निकाला दिया हो। 5. इन चार कारणों में से कोई एक कारण उपस्थित होने पर। 2575. संघ जिस कार्य को नहीं कर पाता, अचिन्त्य प्रभाव युक्त पाराञ्चिक मुनि उस प्रयोजन को प्राप्त कर लेता है। राजा कहता है-'तुम्हारे कथन से मैं पूर्व प्रतिबंधों का विसर्जन करता हूं।' (मुनि कहता है'मैं कुछ नहीं हूं, संघ महान् है।') तब राजा संघ को निमंत्रित करके उसकी पूजा करता है। 2576, 2577. राजा स्वयं संघ से अभ्यर्थना करता है कि मैं तुम्हारा यह कार्य करता हूं, तुम इस पाराञ्चित प्रायश्चित्त वहन करने वाले मुनि को प्रायश्चित्त से मुक्त कर दो। राजा के कहने पर अथवा तुष्ट 1. चक्रवर्ती के पास चौदह रत्न होते हैं, वह सामान्य राजा के पास नहीं होते लेकिन शौर्य और न्याय की अनुपालना में राजा चक्रवर्ती का प्रतिरूप होता है अतः राजरूपी शब्द का प्रयोग किया गया। 2. बृहत्कल्पभाष्य में राजा के द्वारा प्रद्विष्ट होने पर चार प्रकार के दण्ड का उल्लेख है * देश निकाला देना। * भक्त-पान देने का निषेध करना। * उपकरणों का हरण कर लेना। * मार डालना अथवा चारित्र का भेद करना। १:बृभा 3121 ; निव्विसउत्तिय पढमो, बितिओमा देह भत्त-पाणं से।ततितो उवकरणहरो,जीय चरित्तस्स वा भेदो।।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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