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________________ 522 जीतकल्प सभाष्य 2557. आचार्य शिष्य और प्रतीच्छकों को सूत्र और अर्थ की वाचना देकर उनके प्रश्नों का उत्तर देते हैं उसके पश्चात् वे पारांचित प्रायश्चित्त वहन करने वाले के शरीर की वर्तमान स्थिति के बारे में पूछते हैं। तप से क्लान्त उसको आश्वस्त करके आचार्य पुनः उसी क्षेत्र में आ जाते हैं, जहां गच्छ रहता है। 2558. यदि आचार्य शारीरिक दृष्टि से सूत्र की वाचना देने में असमर्थ हों अथवा सूत्र और अर्थ पौरुषी की वाचना दिए बिना प्रात:काल ही चले गए हों तो उनके पीछे से एक संघाटक भक्तपान लेकर आता है। . 2559. पाराञ्चित तप वहन करते हुए कभी रोग हो जाए तो सर्वप्रयत्न से उसका प्रतिकर्म-चिकित्सा करनी चाहिए। 2560. आचार्य स्वयं भक्तपान लेकर आते है। उनका उद्वर्तन, परावर्तन आदि वैयावृत्त्य यथाशक्ति करते 2561. जो आचार्य किसी कारण से प्रायश्चित्त वहन कर्ता ग्लान की उपेक्षा करता है तो उसे ग्लान सूत्र में कथित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2562, 2563. यदि ग्लानत्व आदि कारणों से गुरु वहां जाने में समर्थ न हों, उष्णकाल हो, दुर्बलता हो अथवा कुल आदि का कोई अन्य कार्य हो तो उपाध्याय को वहां भेजे अथवा वहां कोई योग्य गीतार्थ शिष्य को भेजे। पाराञ्चित प्रायश्चित्त वहन कर्ता के पूछने या न पूछने पर भी वह आचार्य के न आने के कारण को प्रकट करे। 2564. पारांचित तप वहन करने वाला क्षीरास्रव आदि लब्धि तथा विद्यादि अतिशयों से युक्त होता है तो वह उस संघ-कार्य को सम्पादित करने में समर्थ होता है। 2565. उसके माहात्म्य को जानते हुए गुरु स्वयं उसे कहते हैं कि संघ का प्रयोजन उपस्थित हुआ है, इस कार्य के लिए तुम योग्य हो। यदि वे उसकी शक्ति को नहीं जानते हैं तो वह स्वयं उनको कहता है कि यह मेरा विषय है। (मैं इस कार्य को करने में समर्थ हूं।) 2566. संघ अचिन्त्य प्रभाव वाला तथा गुणों का आकार है, वह सुखपूर्वक अखण्ड रहे। पाराञ्चित वहनकर्ता कहता है कि यह बड़ा कार्य भी मेरे द्वारा लघु हो जाएगा। 2567, 2568. वह अभिधान और हेतु (शब्द और तर्कशास्त्र) में निपुण, अनेक विद्वत् सभाओं में अपराजित पाराञ्चित तप वहन कर्ता मुनि राजभवन में जाकर द्वारपाल से कहता है- "हे द्वारपालरूपिन्! तुम जाकर राजरूपी को कहो कि एक संयतरूपी आपको देखना चाहता है।" राजा के पास निवेदन करके वह द्वारपाल उस संयत को राजा के पास ले जाता है। 1. यदि पाराञ्चित प्रायश्चित्त वहनकर्ता स्वस्थ हो तो भक्तपान, प्रतिलेखन, उद्वर्तन आदि कार्य वह स्वयं ही करता है। 2. उपेक्षा करने पर आचार्य को चतुर्गुरु (उपवास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1. बृभा 5037 टी पृ. 1344 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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