________________ अनुवाद-जी-१०१ 521 सूत्र और अर्थ से अध्ययन करने वाला, लघुसिंहनिष्क्रीड़ित' आदि तप से भावित, इंद्रिय-विषय और कषाय का निग्रह करने में समर्थ, प्रवचन के सारभूत अर्थ को जानने वाला, निर्वृहित करने पर जिसके मन में तिल तुष मात्र भी अशुभ भाव न आए, वह नि!हण के योग्य होता है। इन गुणों से रहित शेष व्यक्ति नि!हण के योग्य नहीं होते। 2552. इन गुणों से युक्त साधु पाराञ्चित स्थान को प्राप्त करता है। इन गुणों से रहित साधु को पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर भी मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है। 2553. आशातना और प्रतिसेवना करता हुआ साधु पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त करता है। प्रत्येक के दोदो भेद होते हैं-जघन्य और उत्कृष्ट / 2554. आशातना पाराञ्चित जघन्यतः छह माह और उत्कृष्टतः बारह मास तक गच्छ से नियूंढ रहता है। प्रतिसेवना पाराञ्चित जघन्यतः एक वर्ष और उत्कृष्टतः बारह वर्ष तक संघ से निर्मूढ़ रहता है। कुल, गण आदि का कारण उपस्थित होने पर इसमें भजना है अर्थात् वह पहले भी गण में प्रवेश कर सकता है। 2555. यदि आचार्य हो तो वह अन्य शिष्य को इत्वरिक-कुछ समय के लिए गण में निक्षेप-गण का भार सौंपकर फिर अन्य गण में जाकर प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में आलोचना करके पाराञ्चित प्रायश्चित्त को स्वीकार करता है। 101. वह महान् शक्ति सम्पन्न एकाकी रूप से क्षेत्र के बाहर जाकर विपुल तप करता है। आचार्य उसका प्रतिदिन अवलोकन-देखभाल करते हैं। 2556. क्षेत्र के बाहर स्थित पाराञ्चित तप को वहन करने वाले का आचार्य नित्य अवलोकन और गवेषणा करते हैं, उस विधि को मैं कहूंगा। 1. यह तप सिंह की चाल से उपमित है। सिंह दो कदम आगे बढ़ता है फिर एक कदम पीछे रखता है फिर दो कदम आगे बढ़ता है। पूर्व पूर्व आचरित तप की पुनः आराधना करता हुआ साधक आगे बढ़ता है। इसमें न्यूनतम एक उपवास तथा अधिकतम नौ उपवास का तप किया जाता है, जैसे -उपवास के पारणे पर बेला, बेले के पारणे पर उपवास, उसके पारणे पर तेला फिर पारणे पर बेला। इस क्रम से नौ तक चढ़ा जाता है फिर उसी क्रम से उतरा जाता है। इस तप की एक परिपाटी में छह माह सात दिन लगते हैं। (विस्तार हेतु देखें श्रीभिक्षु आगम 2 पृ. 278) 2. बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार गण-निर्गमन रूप पाराञ्चित तप प्रायश्चित्त नियमत: आचार्य ही वहन करते हैं। उन्हें अपने गण में पाराञ्चित तप स्वीकार नहीं करना चाहिए क्योंकि स्वगण में पाराञ्चित तप वहन करने से अगीतार्थ साधुओं के मन में आचार्य के प्रति यह विश्वास हो जाता है कि आचार्य ने अवश्य अकृत्य का सेवन किया है। स वे आचार्य की आज्ञा का भंग कर सकते हैं। स्वगण में उन पर कोई नियंत्रण नहीं रहता अतः आचार्य एक योजन दूर अन्य गण में पाराञ्चित तप स्वीकार करते हैं। वे जिनकल्प के सदृश चर्या का वहन करते हैं। अलेपकृद् आहार ग्रहण करते है। बारह वर्ष तक एकाकी रूप से ध्यान-स्वाध्याय में लीन रहते हैं।' 1. बृभा 5034,5035, टी पृ. 1344 /