________________ 526 जीतकल्प सभाष्य तितिणी-चिड़चिड़े व्यक्ति को निर्दिष्ट करता है। जिनके स्वभाव में चिड़चिड़ापन आदि नहीं होता, वे पात्र कहलाते हैं। 2598, 2599. संविग्न, पापभीरु, परिणामक, गीतार्थ, आचार्य के गुणों का वर्णवाद करने वाला, संग्रहशील, अपरितान्त-वैयावृत्त्य, स्वाध्याय आदि में थकान का अनुभव नहीं करने वाला, मेधावी, बहुश्रुत', गुरु के पास रहने वाला, नित्य अप्रमत्त–इन गुणों से युक्त मुनि जीतकल्प का पात्र होता है। . 2600. जिस प्रकार एक सामान्य व्यक्ति भी ताप, छेद और निकष-कसौटी के द्वारा स्वर्ण की पहचान कर लेता है, वैसे ही जो आदि, मध्य और अवसान में अविकारी होता है, वह जीतव्यवहार के योग्य होता 2601. इस प्रकार सुपरीक्षित साधु को जीत व्यवहार का प्रायश्चित्त देना चाहिए, दूसरे को नहीं। अयोग्य को प्रायश्चित्त देने पर आचार्य को आरोपणा प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है तथा वह आज्ञा-भंग आदि दोष को प्राप्त होता है। 2602. जो सुखशील'-सुविधावादी और नित्यवासी' को प्रवचन का रहस्य कहता है, उसके द्वारा पांच महाव्रत का भेद तथा षट्काय वध का अनुमोदन होता है। 2603. कच्चे घड़े में निहित जल जैसे उस घड़े का विनाश कर देता है, वैसे ही अपात्र सिद्धान्त के रहस्य को विनष्ट कर देता है। 1. विविध आगमों के श्रवण और अध्ययन से जिसकी बुद्धि निर्मल हो जाती है, वह बहुश्रुत कहलाता है। भाष्यकार ने बहुश्रुत के तीन प्रकार किए हैं-१. जघन्य बहुश्रुत-निशीथ का ज्ञाता। 2. मध्यम बहुश्रुत-कल्प और व्यवहार का ज्ञाता। 3. उत्कृष्ट बहुश्रुत-नवें एवं दशवें पूर्व का ज्ञाता। निशीथ चूर्णि में निशीथ और चौदहपूर्व के मध्यवर्ती ज्ञाता को मध्यम बहुश्रुत तथा चतुर्दशपूर्वी को उत्कृष्ट बहुश्रुत माना है। धवला में द्वादशांगी के ज्ञाता को बहुश्रुत कहा गया है। 1. उशांटीप 253; बहुश्रुता विविधागमश्रवणावदातीकृतमतयः। २.बृभा ४०२;तिविहो बहुस्सुओखलु, जहण्णओ मज्झिमो उ उक्कोसो। आयारपकप्पे कप्प नवम-दसमे उ उक्कोसो॥ 3. निभा 495 चू पृ 165 / 4. षट्ध पु.८/३/४१। 2. जो शरीर के सुख में ही लीन रहते हैं, वे सुखशील/पार्श्वस्थ कहलाते हैं। १.बृभाटी पृ. 241, सुखं-शरीरशुश्रूषादिकं शीलयन्तीति सुखशीला: पावस्थादयः। 3. बृहत्कल्प और निशीथ भाष्य में णीयगाणं-नित्यवासी के स्थान पर 'ऽवियत्ताणं' पाठ है। अव्यक्त का अर्थ है श्रुत और वय से अव्यक्त। निशीथ चूर्णिकार ने इसका दूसरा अर्थ किया है कि जिसकी आत्मा मोक्ष सुख से रहित है, वह सुखशीलव्यात्मा है। १.निचू भा. 4 पृ. 257 ; मोक्खसुहे सीलं जं तम्मि विगतो आया जेसिं ते सुहसीलवियत्ता।