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________________ 164 जीतकल्प सभाष्य * निष्कारण ही तप प्रायश्चित्त के अपराध स्थानों का निरन्तर तीन बार अतिक्रमण करने पर उस मुनि के पांच अहोरात्र के संयम-पर्याय का छेद होता है। * बार-बार प्रमाद का सेवन करने पर। भाष्यकार ने छेद प्रायश्चित्त को एक उदाहरण से समझाते हुए कहा है कि कोई वस्त्र कम घड़े से साफ हो जाता है, किसी वस्त्र को छह घड़े से अधिक पानी की आवश्यकता होती है तो उसे नदी, तालाब पर बाहर ले जाना पड़ता है, वैसे ही राग-द्वेष के कारण दोषों की वृद्धि होती है तो छेद आदि प्रायश्चित्त बाहर जाकर वस्त्र धोने के समान हैं। आज्ञाव्यवहार में छेद प्रायश्चित्त का गूढार्थ जब अनशन में स्थित कोई आचार्य किसी दूरस्थित छत्तीस गुणों से सम्पन्न आचार्य में अपने अतिचारों की विशोधि करना चाहते हैं तो वे आज्ञापरिणामक एवं धारणाकुशल शिष्य को उनके पास भेजते हैं। व्यवहारभाष्य में पणग से लेकर छह माह तक के छेद का प्रायश्चित्त आने पर उसका विस्तार से वर्णन किया है। पांच दिन-रात का छेद आने पर आचार्य संदेश भेजे कि अंगुल के छठे भाग जितने भाजन का छेद करो। दस रात-दिन जितना छेद आने पर संदेश भेजे कि अंगुल के तीसरे भाग जितने भाजन का छेद करो। पन्द्रह दिन-रात जितना छेद आने पर कहे कि अंगुल के आधे भाग जितने भाजन का छेद करो। बीस दिन-रात जितना छेद आने पर कहे कि तीन भाग कम अंगुल जितने भाजन का छेद करो। पच्चीस दिन-रात का छेद आने पर कहे कि छह भाग न्यून अंगुल जितने भाजन का छेद करो। एक मास जितना छेद आने पर कहे कि पूर्ण अंगुल जितने भाजन का छेद करो, दो मास जितना छेद आने पर आचार्य कहे कि दो अंगुल जितने भाजन का छेद करो, चार मास जितना छेद आने पर आचार्य कहे कि चार अंगुल जितने भाजन का छेद करो तथा छह मास जितने छेद का प्रायश्चित्त आने पर कहे कि छह अंगुल जितने भाजन का छेद करो।' 8. मूल प्रायश्चित्त जिस पाप का सेवन करने पर पूर्व पर्याय का पूर्णतः छेद करके पुनः महाव्रतों का आरोपण किया जाता है, वह मूलाई प्रायश्चित्त है। यह प्रायश्चित्त प्रगाढ़ अपराध करने पर प्राप्त होता है। 1. व्यभा 127; एतेसिं अण्णतरं, निरंतरं अतिचरेज्ज तिक्खुत्तो। निक्कारणमगिलाणे, पंच उ राइंदिया छेदो।। 2. तवा 9/22 पृ. 622 / 3. व्यभा 505-08,511 / 4. व्यभा 4498, 4499 टी प.८८। 5. जीभा 726, षट्ध पु. 13/5, 4, 26 पृ. 62 ; सव्वं परियायमवहारिय पुणो दीक्खणं मूलं णाम पायच्छित्तं / 6. आवचू 2 पृ. 246, 247; मूलं पगाढतरावराहस्स मूलतो परियातो छिज्जति।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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