________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श . 165 मूल प्रायश्चित्त के स्थान व्यवहारभाष्य के अनुसार आउ प्रकार के मुनि मूल प्रायश्चित्त को प्राप्त करते हैं१. तप-अतीत-छह माह पर्यन्त तप करने पर भी जिसकी शुद्धि न हो। 2. अश्रद्धालु--तप से पाप की विशुद्धि नहीं होती, ऐसी श्रद्धा रखने वाला। 3. तप गर्वित-जो महान् तप से भी क्लान्त न होकर यह सोचता है कि मैं प्रतिसेवना करके तप कर लूंगा अथवा पाण्मासिक तप देने पर वह कहता है कि मैं अन्य तप करने में भी समर्थ हूं। 4. छेद-छेद प्रायश्चित्त से भी शोधि न होने पर अथवा यह गर्व करने पर कि मैं रत्नाधिक हूं, छेद देने पर भी मैं अवमरानिक नहीं बनूंगा। 5. दुर्बल-अधिक तप को वहन करने में असमर्थ / 6. अपरिणामी-इस छह मासी तप से मेरी शुद्धि नहीं होगी, ऐसा कहने वाला। 7. अस्थिर–अधैर्य के कारण पुनः पुनः प्रतिसेवना करने वाला। 8. अबहुश्रुत-अनवस्थाप्य या पाराञ्चित प्राप्त होने पर भी अगीतार्थ होने के कारण जिसे मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है। जीतकल्पभाष्य के अनुसार जो दर्प से पञ्चेन्द्रिय का वध करता है, मैथुन सेवन करता है, इसी प्रकार मृषा, अदत्त और परिग्रह का बार-बार प्रयोग करता है, उसे मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है। अतिपरिणामी, अतिप्रसंगी, मूलगुण और उत्तरगुणों को बहुविध और अनेक बार भंग करने वाला, ज्ञान दर्शन का त्याग करने वाला, सम्पूर्ण संयम तथा दशविध सामाचारी को पूर्णतः त्यक्त करने वाला तथा . : अनवस्थाप्य शैक्ष-इन सबको मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है। जो साधु अत्यन्त अवसन्न हैं, दर्प से गृहलिंग या अन्य यूथिक लिंग को धारण करता है, गर्भाधान और गर्भ-परिशाटन करवाता है, उसको मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। जो मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर भी बार-बार अपने गण में उन्हीं अपराधों को करता रहता है, उसे भी मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। चूर्णिकार के अनुसार दशविध दर्प प्रतिसेवना करने पर मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। भगवती आराधना के अनुसार उद्गम आदि दोषों से युक्त पिण्ड, उपधि और शय्या का उपयोग करने वाला मूल प्रायश्चित्त को प्राप्त करता है। अनगारधर्मामृत के अनुसार अपरिमित अपराध करने वाले १.व्यभा 502 / २.जीभा 2290-96 / 3. जीसू 85, 86 // 4. निभा 474 चू पृ. 159; दससु दप्पादिसु मूलं भवतीत्यर्थः। 5. भआ 290 /