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________________ 166 जीतकल्प सभाष्य पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील और स्वच्छंद को यह प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 9. अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त जिस प्रतिसेवना में कुछ काल तक मुनि को पांचों ही मूल व्रतों में अनवस्थाप्य रखा जाता है अर्थात् पुनः दीक्षा नहीं दी जाती फिर तप का आचरण करने के पश्चात्, उस दोष से उपरत होने के बाद महाव्रतों की आरोपणा की जाती है, वह अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त है। इस प्रायश्चित्त में तत्क्षण ही व्रतों से अनवस्थाप्य किया जाता है। तत्त्वार्थभाष्य में उपस्थापन, पुनर्दीक्षा, पुनश्चरण तथा पुनर्वतारोपण को एकार्थक माना है।' भाष्यानुसारिणी में आचार्य सिद्धसेन ने अनवस्थाप्य और पाराञ्चित को उपस्थापन के अन्तर्गत माना है।' इस प्रायश्चित्त और वहन कर्ता साध में अभेद होने से इस प्रायश्चित्त का नाम भी उपचार से अनवस्थाप्य होता है। बृहत्कल्पसूत्र एवं भाष्य में पहले पाराञ्चित प्रायश्चित्त का वर्णन है, उसके बाद अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त वर्णित है, जबकि प्रायश्चित्त के क्रम में नवां अनवस्थाप्य तथा दसवां पाराञ्चित प्रायश्चित्त है। इसका कारण संभवत: यह होना चाहिए कि पाराञ्चित प्रायश्चित्त आचार्य की शोधि से सम्बन्धित है तथा अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त उपाध्याय की शोधि से सम्बन्धित है। अनवस्थाप्य के प्रकार __ अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के दो प्रकार हैं-आशातना अनवस्थाप्य और प्रतिसेवना अनवस्थाप्य। इन दोनों में चारित्र की भजना है। किसी अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त योग्य अपराध में पूरा चारित्र समाप्त हो जाता है और किसी में चारित्र का अंश बच जाता है। इसका हेतु है कि तीव्र और मंद अध्यवसाय तथा जघन्य और उत्कृष्ट अपराध / आशातना अनवस्थाप्य आशातना के मुख्य छह स्थान हैं-तीर्थंकर, प्रवचन, श्रुत, आचार्य, गणधर और महर्द्धिक मुनि। इनमें तीर्थंकर और संघ की देश आशातना से उपाध्याय को अनवस्थाप्य प्राप्त होता है। शेष श्रुत आदि चारों पदों में एक-एक की आशातना करने और सर्व अशातना करने पर प्रत्येक का चतुर्गुरु (उपवास) तथा सबकी आशातना करने पर अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।" 1. अनध. 7/55 / 2. जीभा 727. 728 // 3. तस्वोभा 9/22; उपस्थापनं पुनर्दीक्षणं पुनश्चरणं पुन- व्रतारोपणमित्यनर्थान्तरम। 4. त 9/22 भाटी 2 पृ. 253 / ५.बृभा 5058 / 6. बृभा 5059 टी पृ. 1350 ; आसायण पडिसेवी, अणवटुप्पो वि होति दुविहो तु। एक्केक्को वि य दुविहो, सचरित्तो चेव अचरित्तो।। 7. जीभा 2305, बृभा 5061 टी पृ. 1350, आशातना के विस्तार हेतु देखें भूमिका पृ. 177, 174 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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