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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 167 प्रतिसेवना अनवस्थाप्य तीन कारणों से साधु को प्रतिसेवना अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त मिलता है - 1. साधर्मिकों की चोरी करना। 2. अन्यधार्मिकों की चोरी करना। 3. हस्तताल-मारक प्रहार करना। साधर्मिक स्तैन्य अपने साथ रहने वाले साधर्मिकों के उपकरणों की चोरी करना साधर्मिक स्तैन्य है। साधर्मिक स्तैन्य दो प्रकार का होता है-सचित्त और अचित्त। अचित्त भी दो प्रकार से होता है-उपधि और भक्त की चोरी करना। सचित्त में शैक्ष का अपहरण करना। उपधि स्तैन्य गुरु किसी संघाटक को त्रिविध उपधि लाने का निर्देश दे, उपधि प्राप्त करके मार्ग में ही 'यह तुम्हारी है और यह मेरी है' इस प्रकार उसको विभाजित करके आत्मार्थ कर लेना उपधि स्तैन्य है। स्वयं उस उपधि को काम में लेने पर लघुमास, गुरु को उपधि निवेदित न करने पर या नहीं देने पर चतुर्लुघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। भाष्यकार का स्पष्ट निर्देश है कि सूत्रादेश से ऐसे मुनि अनवस्थाप्य होते हैं।' साधर्मिक स्तैन्य करने पर उपाध्याय को नवां तथा आचार्य को दसवां प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। दूसरे आदेश से यदि आचार्य साधर्मिक स्तैन्य की बार-बार प्रतिसेवना करता है तो उसको नवां अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। शेष मुनि को बार-बार प्रतिसेवना करने पर भी मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। व्यापारित स्तैन्य का एक प्रकार यह भी हो सकता है कि कोई श्रावक आचार्य को वस्त्र आदि लेने का निमंत्रण दें, उस समय आचार्य वस्त्र आदि उपधि लेने का प्रतिषेध कर दे, उस वस्त्र को देखकर कोई मुनि मायापूर्वक श्रावक के पास जाकर बोले कि मेरी उपधि जल गई है अतः आचार्य ने उपधि लाने के लिए मुझे आपके पास भेजा है। श्रावक से उपधि लेकर मुनि उपाश्रय में आकर गुरु को नहीं दिखाता। श्रावक जब आचार्य के पास दर्शनार्थ आता है तो सहज जिज्ञासा वश पूछता है कि आज किसकी उपधि जल गई थी, साधु हमारे यहां वस्त्र लेने आए थे। आचार्य उसको प्रत्युत्तर देते हैं कि किसी की उपधि दग्ध नहीं हुई। कौन मुनि बिना आज्ञा वस्त्र लेकर आया है, यह सुनकर भी श्रावक यदि अनुग्रह मानता है तो मुनि को चतुर्लघु, यदि श्रावक को अप्रीति होती है तो चतुर्गुरु 'यह साधु चोर है' ऐसा प्रचार हो जाता है तो मूल तथा 1. कसू 4/3, जीभा 2307 / २.जीभा 2308 / 3. जीभा 2316, 2317 / 4. जीभा 2417, 2418 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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