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________________ 168 जीतकल्प सभाष्य शेष साधुओं के लिए अन्य द्रव्यों के विच्छेद का प्रसंग आ जाने पर अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यदि यथार्थ रूप में उपधि जली हो, उस समय गुरु शिष्य को उपधि लाने को भेजे और बीच में ही शिष्य उस उपधि को आत्मार्थ बना ले तो उसे चतुर्लघु तथा गुरु को निवेदन न करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। भाष्यकार के अनुसार सूत्रादेश से वह अनवस्थाप्य होता है। इसी प्रकार कोई आचार्य पात्रकबंधयुक्त उत्कृष्ट पात्र किसी अन्य आचार्य के पास भेजे, वह शिष्य लुब्ध होकर उस पात्र को आत्मार्थ कर ले तो उसे उपर्युक्त प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।' आहार स्तैन्य असंदिष्ट स्थापना कुल में जाकर आहार आदि लाना आहार स्तैन्य है। साधु गुरु की आज्ञा के बिना आहार लाए तो उसे लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। स्थापना कुल में जाकर मायापूर्वक श्रावक को भ्रम में डालकर यह कहे कि गुरु ने मुझे भेजा है, अतिथि और ग्लान आदि के लिए आया हूं। इस प्रकार माया करके आहार प्राप्त करने पर गुरुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। अथवा आहार आदि लाकर गुरु के समक्ष उसकी आलोचना नहीं करने पर गुरुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। साधु का मायापूर्ण स्तैन्य श्रावक को ज्ञात होने पर भी यदि श्रावक अनुग्रह मानता है तो चतुर्लघु, यदि अप्रीति करता है तो चतुर्गुरु, यदि.श्रावक विपरिणत होकर गुरु और ग्लान के योग्य भक्तपान का विच्छेद करता है तो चतुर्गुरु, यदि क्षपक और अतिथि साधु के योग्य आहार नहीं देता है तो चतुर्लघु, बाल और वृद्धों के योग्य आहार न देने पर गुरुमास तथा शैक्ष और बहुभक्षी को आहार न देने पर लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। सचित्त शैक्ष आदि का स्तैन्य 'मैं अमुक साधु के पास दीक्षा ग्रहण करूंगा' इस भावना से कोई शैक्ष मार्ग में मिल जाए, उसका यदि कोई बीच में ही अपहरण कर ले तो यह सचित्त स्तैन्य है। कोई साधु संज्ञाभूमि में किसी शैक्ष साधु को एकाकी देखकर भक्तपान आदि से उसे अपनी ओर आकृष्ट करने का प्रयत्न करे तो उसकी भावना अशुद्ध है। यदि वह साधर्मिक की अनुकम्पा वश धर्मकथा करे या भक्तपान दे तो वह शुद्ध है। व्यक्त या अव्यक्त शैक्ष-अपहरण के छह स्थान होते हैं१. भक्त-प्रदान-शैक्ष का अपहरण करने के लिए या विपरिणत करने के लिए उसे भक्त-पान देना। 2. धर्म-कथा-प्रभावित करने के लिए धर्मकथा करना। 1. जीभा 2318-22 / 2. जीभा 2323, 2324 / 3. जीभा 2325,2326 बृभा 5072 / 4. जीभा 2328, 2329 / 5. जीभा 2331, 2332, बृभा 5086,5087 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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