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________________ अनुवाद-जी-८८-९३ 507 तथा आचार्य को दसवां प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2417. आचार्य और उपाध्याय के द्वारा तुल्य अपराध करने पर भी दोनों को तुल्य या अतुल्य प्रायश्चित्त दिया जाता है। पाराञ्चित प्रायश्चित्त योग्य अपराध करने पर भी उपाध्याय को नवां-अनवस्थाप्य तथा आचार्य को पाराञ्चित प्रायश्चित्त दिया जाता है। 2418. अथवा जो आचार्य साधर्मिक स्तैन्य की बार-बार प्रतिसेवना करता है, उससे उपरत नहीं होता, उसको नवां अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, शेष मुनि जो बार-बार प्रतिसेवना करते हैं, उन्हें मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2419. तृतीय अर्थादान में क्षेत्रतः अनवस्थाप्य कहा गया है। उस व्यक्ति को उस क्षेत्र में उपस्थापना नहीं दी जाती। शेष को गच्छ में रहते हुए भी आलाप आदि पदों से बहिष्कृत कर दिया जाता है। 88. पाराञ्चित प्रायश्चित्त योग्य दोष सेवन करने पर उपाध्याय को अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। बहुत बार पाराञ्चित प्रायश्चित्त योग्य दोष सेवन करने पर भी उन्हें अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2420. अभिषेक का अर्थ है-उपाध्याय। बहुश शब्द पुनः-पुनः अर्थ में है। सर्व शब्द पाराञ्चित अपराध से जुड़ता है। 2421. अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त करने वाला अनेक बार दोष सेवन करता है। अनन्तर जीसू 89 गाथा में जिसे अनवस्थाप्य किया जाता है, उसका वर्णन है। 2422. शिष्य पूछता है कि उपाध्याय को अनवस्थाप्य प्राप्त होने पर अनवस्थाप्य दिया जाए, यह तो युक्त है लेकिन पाराञ्चित अपराध प्राप्त कर्ता को भी नवां अनवस्थाप्य क्यों दिया जाता है? 2423. आचार्य उत्तर देते हैं कि नवम और दशम प्रायश्चित्त की प्राप्ति होने पर भी भिक्षु को मूल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है तथा उपाध्याय का भी उत्कृष्ट प्रायश्चित्त अनवस्थाप्य होता है। 89. अनवस्थाप्य चार प्रकार से किया जाता है-१. लिंग 2. क्षेत्र 3. काल और 4. तप। लिंग से अनवस्थाप्य दो प्रकार का कहा गया है-द्रव्यलिंग और भावलिंग', वह दीक्षा के अयोग्य होता है। 90. अप्रतिविरत और अवसन्न साधु भावलिंग ग्रहण करने के अयोग्य होते हैं। जो जिस क्षेत्र में दोष 1. चूर्णिकार ने द्रव्यलिंग और भावलिंग के आधार पर चतुर्भंगी का निर्देश किया है। जीतकल्प की विषमपद व्याख्या में इनका विस्तार प्राप्त है• द्रव्यलिंग रजोहरण आदि से अनवस्थाप्य, भावलिंग महाव्रत आदि से भी अनवस्थाप्य। * द्रव्यलिंग से अनवस्थाप्य, भावलिंग से नहीं। * भावलिंग से अनवस्थाप्य, द्रव्यलिंग से नहीं। •न द्रव्यलिंग से अनवस्थाप्य, न भावलिंग से (यह भंग असंभव है।)
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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