________________ 508 जीतकल्प सभाष्य . से दूषित होता है, वह उस क्षेत्र में दीक्षा के लिए प्रतिषिद्ध होता है। 91. जितने काल तक वह दोष से विरत नहीं होता, उतने समय तक वह काल से अनवस्थाप्य है। तीर्थंकर आदि की आशातना करने वाला जघन्यतः छह मास और उत्कृष्टतः एक वर्ष तक तप से अनवस्थाप्य होता है। 92. प्रतिसेवना करने वाला जघन्यतः एक वर्ष और उत्कृष्टतः बारह वर्ष तक तप से अनवस्थाप्य होता है। कारण होने पर न्यून और न्यूनतर भी वहन करता है अथवा सारे प्रायश्चित्त से मुक्त भी किया जा सकता है। 93. अनवस्थाप्य तप वहन करने वाला स्वयं वंदन करता है लेकिन उसको कोई वंदना नहीं करता, वह दुष्कर परिहार तप का पालन करता है। उसके साथ संवास कल्प्य है लेकिन आलाप आदि पद वर्ण्य हैं। 2424, 2425. जो स्वपक्ष या परपक्ष में चोरी आदि दोषों से विरत नहीं होते अथवा हस्तताल आदि पदों से अविरत रहते हैं, जो अवसन्न आदि हैं, दोषों से अनुपरत हैं तथा द्रव्यलिंग युक्त हैं, उन्हें भावलिंग से अनवस्थाप्य करना चाहिए। 2426. काल से जितने समय तक दोष से उपरत नहीं होता, उतने काल तक अनवस्थाप्य किया जाता है। 2427. तप अनवस्थाप्य दो प्रकार का होता है-आशातना अनवस्थाप्य और प्रतिसेवना,अनवस्थाप्य। दोनों के दो-दो भेद होते हैं -जघन्य और उत्कृष्ट। 2428. आशातना से सम्बन्धित तप अनवस्थाप्य का समय जघन्य छह मास तथा उत्कृष्ट एक वर्ष होता है। वह किसकी आशातना करता है? भाष्यकार कहते हैं कि तीर्थंकर से लेकर महर्धिक आदि की आशातना करता है। 2429. प्रतिसेवी अनवस्थाप्य का जघन्य समय एक वर्ष तथा उत्कृष्ट बारह वर्ष होता है / शिष्य जिज्ञासा करता है कि वह किसकी प्रतिसेवना करता है? आचार्य उत्तर देते हैं कि वह साधर्मिक स्तैन्य, अन्य धार्मिक स्तैन्य आदि सब पदों की प्रतिसेवना करता है। 2430. कारण आदि पदों का वर्णन पहले कर दिया, अब परिहार -तप के बारे में कहूंगा। वंदन आदि परिहरणीय पदों को मैं संक्षेप में कहूंगा। 2431. परिहरण को परिहार कहते हैं। अनवस्थाप्य में आलापन आदि दस पदों का परिहार किया जाता है, वह शैक्ष आदि को वंदना करता है पर वह स्वयं वंदनीय नहीं होता। 1. व्यवहारभाष्य के अनुसार पांच अहोरात्र यावत् भिन्नमास प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना करने पर परिहारतप प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता, किन्तु मास, दो मास आदि स्थानों में यह प्रायश्चित्त दिया जाता है। . 1. व्यभा 598 मटी प.४६ /