________________ अनुवाद-जी-९३ 509 2432. किन गुणों से युक्त को अनवस्थाप्य किया जाता है, उसे तुम सुनो। जो संहनन, वीर्य, आगम के सूत्रार्थ और धृति से युक्त होता है, उसे अनवस्थाप्य प्राप्त होता है। 2433. प्रथम तीन संहनन, निद्राविजय को छोड़कर सभी गुणों से युक्त साधु, जिसे अनवस्थाप्य प्राप्त हो या पाराञ्चित, उसे सर्व तप दिया जाता है। 2434. नौ और दश पूर्वो के अर्थ का ज्ञाता, उद्गम दोष से रहित, धृतियुक्त, कृतयोगी तथा शुभ परिणामों से युक्त-इन गुणों से युक्त साधु को अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त देना चाहिए। 2435. इन गुणों से युक्त साधु की यदि चारित्रश्रेणी नष्ट या भग्न हो जाती है तो वह पुरानी गुणश्रेणी को पूर्णतः भर देता है। मुनि गण में ही बारह वर्ष तक विहरण करता है। 2437. उसके द्वारा परिहारतप को स्वीकार करने के समय सम्पूर्ण संघ को कायोत्सर्ग करना चाहिए। संघाटक साधु उसके भयभीत मन को स्थापित करते हैं, आश्वस्त करते हैं और उसके मन को समर्थ बनाते 2438. कायोत्सर्ग क्यों किया जाता है? यह बात शैक्ष को ज्ञान कराने के लिए कही जा रही है। शेष १.परिहार तप स्वीकार करने वाले साधु की योग्यता के प्रसंग में व्यवहार भाष्य में शिष्य गुरु से प्रश्न पूछता है कि परिहारतप स्वीकार करने वाले साधु में इन गुणों का होना क्यों आवश्यक है? इन गुणों से विहीन को परिहार क्यों नहीं दिया जाता? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य दो प्रकार के मंडपों का दृष्टान्त देते हुए कहते हैं कि पत्थर के मंडप पर जो कुछ डाला जाता है, वह उसको धारण कर लेता है, भग्न नहीं होता लेकिन एरण्ड मंडप में ऐसा नहीं होता। इसी प्रकार जो धृति और संहनन से बलशाली है, गीतार्थ आदि गुणों से युक्त है, उसे ही परिहारतप दिया जाता है। १.व्यभा 541, 542 / २.जीतकल्प भाष्य में नौ और दश पूर्व के ज्ञाता का उल्लेख है लेकिन निशीथ भाष्य में इसका स्पष्टीकरण मिलता है। वह जघन्यतः नौवें पूर्व की तृतीय आचारवस्तु तथा उत्कृष्टत: कुछ कम दश पूर्व का ज्ञाता होना चाहिए। संघ में ज्ञान की परम्परा अविच्छिन्न रखने के लिए सम्पूर्ण दशपूर्वी को अनवस्थाप्य रूप परिहारतप नहीं दिया जाता। यह परिहार तप स्वीकार करने वाले के सूत्रार्थ का प्रमाण है।' 1. निभा 2873 पृ. 63, 64 / 3. सम्पूर्ण संघ निरुपसर्ग के लिए तथा दूसरों में भय पैदा करने के लिए कायोत्सर्ग करता है। निशीथ चूर्णिकार ने इस संदर्भ में विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की है। द्रव्य से वट आदि क्षीरवृक्ष के नीचे, क्षेत्रतः जिनगृह, कालतः प्रशस्त छह मास का परिहार तप स्वीकार किया जाता है। १.निचू 3 पृ.६५ सो य दव्वओ वडमादिखीररुक्खे,खेत्तओजिणघरादिसु, कालओ पुव्वसूरे पसत्थादिदिणेसु य, भावतो चंदताराबलेसु, तस्सप्पणो गुरुणो य साहए सुपडिवत्ती भवति।