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________________ 510 जीतकल्प सभाष्य साधुओं के मन में भय पैदा करने के लिए तथा परिहार तप की निर्विघ्न समाप्ति के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है। 2439. जब तक यह परिहारकल्प समाप्त न हो, तब तक मैं तुम्हारे लिए कल्पस्थित' (आचार्य) हूं। यह गीतार्थ मुनि अनुपारिहारिक' है। अनुपारिहारिक पूर्व में पारिहारिक तप स्वीकार करने वाला होना चाहिए उसके अभाव में दृढ़ संहनन वाले किसी गीतार्थ मुनि को अनुपारिहारिक स्थापित किया जाता है। 2440. आचार्य सब साधुओं को कहते हैं कि यह परिहार तप स्वीकार कर रहा है। अब यह किसी के साथ आलाप आदि नहीं करेगा। तुम भी इसके साथ आलाप आदि मत करना। आत्मचिंतन में लीन इस मुनि को तुम लोग कोई व्याघात पैदा मत करना। 2441. निम्न दस स्थानों से गच्छ उसका परिहार करता है तथा वह गच्छ का परिहार करता है। परिहार न करने पर प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2442. परिहार के दस स्थान इस प्रकार हैं-१. आलापन 2. प्रतिपृच्छा 3. परिवर्तना-पूर्व अधीत की परावर्तना 4. उत्थान 5. वंदना ६.मात्रक लाकर देना 7. प्रतिलेखन ८.संघाटक रूप में उसके र 1. आचार्य अथवा आचार्य के द्वारा नियुक्त नियमत: गीतार्थ साधु, जो आचार्यों के समान व्यवहार करता है, वह कल्पस्थित कहलाता है। १.निचू भा.३ पृ.६५;आयरिओ आयरियणिउत्तो वा णियमा गीतत्थो तस्स आयरियाण पदाणुपालगो कम्पट्टितो भण्णति। 2. पारिहारिक के चलने पर सर्वत्र जो उसका अनुगमन करता है, वह अनुपारिहारिक कहलाता है। अनुपारिहारिक भी नियमत: गीतार्थ होता है। पारिहारिक भिक्षार्थ जाता है तो अनुपारिहारिक श्वान आदि से उसकी रक्षा करता है। यदि वह उपकरण आदि उठाने में समर्थ नहीं है तो अनुपारिहारिक उसकी प्रतिलेखना आदि भी कर देता है। बृहत्कल्प भाष्य में इस प्रसंग की विस्तार से चर्चा है। सामान्यतः अनुपारिहारिक पारिहारिक को भक्त पान आदि लाकर नहीं देते हैं, न ही आलापन आदि करते हैं लेकिन कारण होने पर गोदृष्टान्त की भांति उसका सहयोग करते हैं। जैसे नवप्रसूता गाय उठने-बैठने में समर्थ नहीं रहती, उस समय ग्वाला गाय को उठाकर चरने के लिए अरण्य में ले जाता है। जो चलने में समर्थ नहीं होती, उसके लिए घर पर चारा लाकर देता है। इसी प्रकार पारिहारिक भी उत्थान आदि करने में समर्थ नहीं होता तो अनुपारिहारिक सारा कार्य करता है। १.निचू भा. 3 पृ.६५ ; परिहारियं गच्छंतं सव्वत्थ अणुगच्छति जो सो अणुपरिहारितो, सो वि णियमा गीयत्थो। 2. बृभा 5607 टी. पृ. 1484 / 3. परिहारकल्प करने वाला एक क्षेत्र, एक उपाश्रय में एक साथ रह सकता है पर आलापन आदि दश पदों का परिहार करता है। बिना कारण आलापन आदि करने पर दोनों को आज्ञा-भंग आदि दोष लगते हैं। कोई देवता प्रमत्त मुनि को छल सकता है। कोई साधु सजग करता है कि तुम लोग आलाप आदि क्यों कर रहे हो तो ऐसा कहने पर कलह की संभावना रहती है। १.बृभा५६०१ कुव्वंताणेयाणि उ, आणादि विराहणा दुवेण्हं पि।देवय पमत्त छलणा, अधिगरणादी य उदितम्मि।।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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