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________________ अनुवाद-जी-९३ 511 9. भक्तपान देना १०.साथ में भोजन करना आदि। इन दस स्थानों से गच्छ उसका और वह गच्छगत साधुओं का परिहार करता है। 2443. आलापन से संघाटक तक आठ पदों का व्यवहार करने पर गच्छ के साधु को लघुमास, भक्तपान देने पर चतुर्लघु तथा साथ में भोजन करने पर चार अनुद्घात मास (गुरुमास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2444. आलापन से संघाटक तक आठ पदों का व्यवहार करने पर पारिहारिक को गुरुमास, भक्तपान देने तथा साथ में आहार करने पर चार अनुद्घात मास (गुरुमास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2445. यदि पारिहारिक कृतिकर्म करता है तो गुरु उसे स्वीकार करते हैं। उसे परिज्ञा–प्रत्याख्यान करवाते हैं। सूत्रार्थ विषयक पूछने पर गुरु उसका उत्तर देते हैं। वह पारिहारिक भी गुरु के आने पर खड़ा होता है। गरु यदि शारीरिक स्वास्थ्य के बारे में पछते हैं तो वह उस सम्बन्ध में बताता है। 2446-49. इस प्रकार पारिहारिक की स्थापना करने पर यदि किसी को यह भय हो जाए कि मैं अकेला इतना समय कैसे व्यतीत करूंगा? तो आचार्य उसे आश्वस्त करते हैं किं तुम डरो मत तुम्हारे पास यह अनुपारिहारिक है, कल्पस्थित है। जो कुछ पूछना है, वह मुझसे पूछो। तुम अनुपारिहारिक के साथ भिक्षार्थ भ्रमण करना। इस प्रकार कहकर उसको आश्वस्त करके भय से उपरत करते हैं। वे उसको कैसे आश्वासन देते हैं, उसे तुम सुनो। 2450, 2451. जैसे कोई व्यक्ति कुएं में गिर जाए, उस समय (तटस्थ व्यक्ति) कोई यह कहे कि हा! यह मरकर बचा है तो वह भय से अंगों को ढीला छोड़ देता है, जिससे वह मर जाता है। यदि कोई ऐसा कहे कि तुम डरो मत। तुम्हारे लिए रस्सी लाई गई है, उससे तुम्हें कुएं से बाहर निकाल दिया जाएगा तो यह सुनकर वह आश्वस्त हो जाता है। 2452-54. इसी प्रकार नदी में डूबने पर तथा किसी व्यक्ति पर राजा के रुष्ट होने पर यदि उसको यह कहा जाता है कि तुम नष्ट हो गए हो तो वह उद्विग्न हो जाता है। यदि यह कहा जाता है कि तुम डरो मत। राजा इस असमीक्षित कार्य के लिए कुछ भी नहीं करेगा, वह मुक्त कर देगा। इस प्रकार आश्वासन देने पर वह आश्वस्त हो जाता है। इसी प्रकार पारिहारिक को आश्वस्त करने पर वह उग्र तपःकर्म का वहन कर लेता है। 2455, 2456. उग्र तप से जब पारिहारिक कृश और दुर्बल शरीर वाला हो जाता है, उत्थान आदि करने में समर्थ नहीं रहता, तब वह अनुपारिहारिक को कहता है कि उठो, बैठो, भिक्षा करो, भंडक की प्रतिलेखना करो तो वह मौन भाव से कुपित प्रिय बंधु की भांति सारी क्रियाएं सम्पन्न करता है। 2457. अपवाद स्थान में अन्य गण से आया हुआ साधु अजानकारी में उसे वंदना कर लेता है। 1. जीतकल्प के भाष्यकार ने नदी के दृष्टान्त की पूरी व्याख्या नहीं की है। निशीथ चूर्णि में इसकी व्याख्या मिलती है। नदी में डूबने वाले को यदि यह कहा जाता है कि तुम तट का आलम्बन लेने का प्रयत्न करो, यह तैराक व्यक्ति दृति आदि लेकर तुमको नदी से पार उतार देगा तो वह भयमुक्त होकर आश्वस्त हो जाता है। 1. निचू भा. 3 पृ.६५।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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