________________ 512 जीतकल्प सभाष्य अनुपारिहारिक और आचार्य के ग्लान होने पर गच्छगत साधु सारा कार्य यतनापूर्वक करते हैं।' 2458. गच्छ के साधु भक्तपान आदि लाकर गुरु को सौंपते हैं। गुरु अनुपारिहारिक को तथा अनुपारिहारिक पारिहारिक को देते हैं, यह यतना है। 2459. गुरु के एकाकी होने पर या अन्य साधु के न होने पर आगाढ़ स्थिति में वह भी उसकी सेवा करता है। 2460. परिहार तप पूर्ण होने पर, कुलादि के कार्य से निवृत्त होने पर उसकी उपस्थापना होती है। कुछ आचार्य ऐसा मानते हैं कि गृहस्थ वेश करके उसका उपस्थापन होता है। 2461. गृहस्थ वेश किए बिना उपस्थापना करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। आज्ञा आदि दोष होते हैं अथवा निम्न दोष होते हैं२४६२. स्नान आदि का वर्जन करके वेश मात्र पहनाना अच्छा है, ऐसा कुछ आचार्य कहते हैं। दूसरे आचार्य कहते हैं कि मात्र वस्त्रयुगल पहनाना पर्याप्त है। वह परिषद् के मध्य आकर कहता है कि मैं धर्म सुनना चाहता हूं। आचार्य उसे धर्म कहते हैं फिर उसकी दीक्षा होती है। 2463. शिष्य प्रश्न पूछता है कि उसको गृहस्थ वेश क्यों दिया जाता है? वस्त्र मात्र पहनाना क्यों श्रेष्ठ है? युगलवस्त्र क्यों पहनाया जाता है? परिषद् के मध्य क्यों रखा जाता है? उसको धर्म क्यों कहा जाता है? 2464. आचार्य उत्तर देते हैं कि तिरस्कार करने पर वह पुनः वैसा अतिचार सेवन नहीं करता। शैक्ष मुनियों के मन में भी भय पैदा हो जाता है। गृहस्थभूत होना धर्म से रहित होना है अतः यह रूप किया जाता है। 94. तीर्थंकर, प्रवचन, श्रुत, आचार्य, गणधर और महर्धिक की बार-बार आशातना करते हुए मुनि 1. यतना कैसे करनी चाहिए, इसकी निशीथ चूर्णिकार ने विस्तार से व्याख्या की है। चूर्णिकार ने 'उभयगेलण्ण' की व्याख्या में कल्पस्थित, पारिहारिक और अनुपारिहारिक-इन तीनों के ग्लानत्व को स्वीकार किया है। ऐसी स्थिति में गच्छगत साधु पारिहारिक के पात्र में भिक्षा लाकर कल्पस्थित को देते हैं। कल्पस्थित वह भिक्षापात्र अनुपारिहारिक को देता है, वह उसे पारिहारिक को देता है। यदि गच्छवासी साधुओं के द्वारा देने पर भी कल्पस्थित और अनुपारिहारिक वहां नहीं जाते हैं तो साधु स्वयं पारिहारिक को वह भिक्षा-पात्र दे देते हैं। संघगत साधुओं के ग्लान होने पर पारिहारिक गच्छवासी साधुओं के पात्र में आहार लाकर अनुपारिहारिक को देता है। अनुपारिहारिक कल्पस्थित को देता है फिर वह गच्छवासी साधुओं को वह आहार देता है। यदि आचार्य की सेवा करने वाला कोई साधु नहीं होता तो पारिहारिक यतनापूर्वक सेवा करता है। वह आचार्य के पात्र में भिक्षा लाकर अनुपारिहारिक को देता है। अनुपारिहारिक कल्पस्थित को देता है तथा वह उस आहार को संघ के आचार्य को देता है। 1. निचू भा. 3 पृ.६७। 2. मलयगिरि ने व्यवहारभाष्य की टीका में 'अपरे' शब्द से दाक्षिणात्य आचार्य का संकेत दिया है। १.व्यभा 1207 मटी प.५२; अपरे दाक्षिणात्या : पुनरेवमाहुर्वस्त्रयुगलमात्रं परिधाप्यते। 3. व्यवहारभाष्य (1210) में गृहस्थीभत किए बिना उपस्थापना करने के निम्न कारण बताए हैं-१. राजा की आज्ञा से। 2. स्वगण के प्रदुष्ट हो जाने पर। 3. बलात् दूसरों द्वारा मुक्त कराने की स्थिति में। 4. इच्छापूर्ति के लिए। 5. दो गणों में विवाद होने पर।