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________________ अनुवाद-जी-९४,९५ 513 को अभिनिवेश के कारण पाराञ्चित प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2465, 2466. वह आशातना कैसे करता है? आचार्य उत्तर देते हैं कि वह उनका अवर्णवाद बोलता है। पुनः शिष्य प्रश्न करता है कि वह किस रूप में अवर्णवाद करता है? आचार्य कहते हैं कि तुम सुनो, वह किस रूप में अवर्णवाद बोलता है * प्राभृतिका'-देवरचित समवसरण, महाप्रातिहार्य, पूजा आदि कार्य का अर्हत् अनुमोदन करते हैं। * जानते हुए भी अर्हत् भोगों को क्यों भोगते हैं? * स्त्री तीर्थंकर होती है, यह अयुक्त है। * तीर्थंकरों ने अत्यन्त कठोर चर्या का उपदेश दिया है। 2467, 2468. इस प्रकार तथा अन्य प्रकार से भी तीर्थंकर का अवर्णवाद बोलता है। वह त्रिलोक पूजित तीर्थंकरों की प्रतिमा की निंदा करता हुआ कहता है कि प्रतिमा को माल्य, अलंकार आदि से क्यों विभूषित किया जाता है? वंदन, स्तुति आदि प्रतिरूप विनय को समीचीन रूप से नहीं करता, यह तीर्थंकरों की आशातना है। 2469. जो आक्रोश तथा तर्जना से संघ पर आक्षेप करता है, वह संघ प्रत्यनीक होता है। वह कहता है कि सियार, णंतिक्क और ढंक आदि के भी संघ होते हैं, यह संघ भी वैसा ही है। 2470. आगमों में षट्काय, व्रत, प्रमाद और अप्रमाद के वे ही स्थान हैं। इनका बार-बार वर्णन है, यह उचित नहीं है। मोक्षाधिकारी मुनियों को ज्योतिष्-विद्या से क्या प्रयोजन? (यह श्रुत की आशातना है।) 2471. आचार्य ऋद्धि, रस, साता से भारी होते हैं। ये मंखों की भांति परोपदेश में उद्यत रहते हैं तथा ब्राह्मणों की भांति अपने पोषण में रत रहते हैं। (यह आचार्य की आशातना है।) 2472. ये आचार्य दूसरों को अभ्युद्यत विहार की देशना देते हैं किन्तु स्वयं इसमें उदासीन रहते हैं। ये ऋद्धियों के आधार पर जीते हैं, फिर भी कहते हैं कि हम नि:संग हैं। 2473. गणधर ही महर्धिक होते हैं अथवा महातपस्वी, वादी आदि महर्धिक माने जाते हैं। तीर्थंकर के प्रथम शिष्य गणधर होते हैं। 'आदि' शब्द के ग्रहण से अन्य महर्धिक भी गृहीत होते हैं। 2474. आशातना दो प्रकार की होती है-देश और सर्व। देशतः आशातना करना देश आशातना है। आचार्य आदि सबकी एकदेशीय आशातना अथवा सबकी सर्वतः आशातना करना सर्व आशातना है। 2475. तीर्थंकर तथा संघ की देशतः अथवा सर्वतः आशातना करने वाला पाराञ्चित प्रायश्चित्त को प्राप्त करता है। शेष की देशतः आशातना करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2476. सबकी आशातना करता हुआ पाराञ्चित प्रायश्चित्त को प्राप्त करता है। यहां पर देशतः आशातना करने वाला सचारित्री तथा सर्वतः आशातना करने वाला अचारित्री होता है। 2477. तीर्थंकर के प्रथम शिष्य गणधरों में एक की भी आशातना करने वाले को पाराञ्चित प्रायश्चित्त 1. प्राभृतिका का अर्थ है-देव विरचित समवसरण में महाप्रातिहार्य की पूजा।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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