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________________ अनुवाद-जी-३५ 431 1558. जिस मात्रक से दाता दान देता है, उसमें यदि अदेय अशन आदि हो तो उसको भूमि पर या अन्यत्र डालकर अन्न आदि देना संहत दोष है। 1559. संहरण छह कायों पर होता है तथा इसके भी तीन भेद हैं-१. सचित्त 2. अचित्त और 3. मिश्र। यहां भी निक्षिप्त दोष की भांति भंग एवं संयोग करने चाहिए। 1560. सचित्त और मिश्र आदि की दो चतुर्भंगियों में आहार की मार्गणा नहीं होती। तीसरी अचित्त की चतुर्भंगी में मार्गणा होती है। संहरण पृथ्वी आदि छह जीवनिकायों पर होता है। 1561,1562. तृतीय अचित्त चतुर्भगी के चौथे भंग में ग्रहण की भजना होती है। शिष्य प्रश्न पूछता है कि जब दोनों अचित्त हैं तो फिर भजना कैसे? आचार्य कहते हैं कि यहां यह चतुर्भंगी है * शुष्क पर शुष्क संहरण। * आर्द्र पर शुष्क संहरण। * शुष्क पर आई संहरण। * आर्द्र पर आर्द्र संहरण। 1563. शुष्क आदि प्रत्येक भंग की स्तोक और बहु के आधार पर चतुर्भगी होती है, जैसे * थोड़े शुष्क पर थोड़ा शुष्क। * बहु शुष्क पर थोड़ा शुष्क। * थोड़े शुष्क पर बहु शुष्क। * बहु शुष्क पर बहु शुष्क। 1564. जिस विकल्प में थोड़े शुष्क पर अल्प शुष्क संहत होता है, वह कल्पनीय है। इसके अतिरिक्त शुष्क पर आई, आर्द्र पर शुष्क या आर्द्र पर आर्द्र-इन तीन भंगों में आहार अग्राह्य होता है। यदि आदेय वस्तु कम भार वाली है, उस पर लघु भार वाली वस्तु को अन्यत्र डालकर दिया जाता है तो वह वस्तु कल्पनीय होती है। 1565. शेष तीन भंग स्तोक पर बहुत, बहुत पर स्तोक तथा बहुत पर बहुत-ये तीन भंग दाता के आधार पर जानने चाहिए। 1566. बड़े पात्र को उठाने तथा नीचे रखने में दाता को पीड़ा होती है। लोक में निंदा होती है कि यह मुनि ..कितना लोलुप है, जो पर-पीड़ा को नहीं देखता। भारी पात्र को उठाते समय दाता का वध, अंगभंग अथवा शरीर-दाह हो सकता है। भारी पात्र से वस्तु के बिखरने से षट्काय का वध हो सकता है। दाता के मन में मुनि के प्रति अप्रीति तथा उस द्रव्य के कारण अन्य देय द्रव्यों का व्यवच्छेद हो सकता है। 1567. स्तोक पर स्तोक (अथवा बहुत पर स्तोक) निक्षिप्त होने पर भी यदि वस्तु शुष्क पर शुष्क है तो कल्प्य है। शुष्क पर आई, आर्द्र पर शुष्क तथा आई पर आर्द्र निक्षिप्त होने पर वह आचीर्ण है। स्तोक पर बहुत तथा बहुत पर बहुत का संहरण अनाचीर्ण है। इससे पूर्वगाथा (गा. 1566) में उक्त दोष समापन्न होते हैं अतः अनाचीर्ण है। 1568. संहरण दोष का कथन कर दिया। इसमें प्रायश्चित्त की प्राप्ति एवं प्रायश्चित्त-दान निक्षिप्त दोष की भांति है। अब मैं संक्षेप में दायक द्वार के बारे में कहूंगा। 1569-74. वर्जनीय दायक के चालीस प्रकार हैं
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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