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________________ 430 जीतकल्प सभाष्य 1549. पिहित दोष में भी सचित्त, मिश्र और अचित्त से सम्बन्धित तीन चतुर्भगियां होती हैं। इनमें प्रथम दो-सचित्त और मिश्र की चतुर्भगी में आहार-ग्रहण प्रतिषिद्ध है, तीसरे भंग की चतुर्भंगी के चौथे विकल्प में ग्राह्य है। 1550. सचित्त से अचित्त पिहित दो प्रकार का होता है-अतिरोहित और सतिरोहित। यह पृथ्वी आदि छहों काय पर होता है, जैसे-पृथ्वी पर अतिरोहित चावल का आटा। 1551. छाबड़ी, पिठर आदि से अतिरोहित पक्वान्न आदि अनन्तर पिहित होता है। सम्मार्जनी से पिहित परम्पर पिहित होता है। अग्निकाय से पिहित इस प्रकार है१५५२. अंगार आदि से अतिरोहित वस्तु अनन्तर पिहित तथा अंगार आदि से भरे हुए सिकोरे आदि से पिहित वस्तु परम्पर पिहित कहलाती है। अंगार धूपित में अतिरोहित वायु अनन्तर पिहित तथा वायु से भरी दृति से पिहित परम्पर पिहित होता है। 1553. अतिरोहित फल आदि से पिहित आहार अनन्तर पिहित तथा फलों से भरी छाबड़ी एवं पिठर आदि से ढका हुआ आहार परम्पर पिहित कहलाता है। इसी प्रकार त्रसकाय विषयक जो कच्छप या चींटी आदि से पिहित है, वह अनन्तर पिहित तथा कच्छप, चींटी आदि से गर्भित छब्बक आदि से पिहित परम्पर पिहित होता है। 1554. इसके तृतीय भंग में मार्गणा है, चौथे भंग में भजना है। प्रश्न उपस्थित होता है कि अचित्त से अचित्त पिहित होने पर भजना की क्या आवश्यकता है? (आचार्य कहते हैं-) इसका कारण सुनो। 1555. अचित्त देय वस्तु से पिहित की चतुभंगी इस प्रकार है * भारी वस्तु से पिहित भारी देय वस्तु। * भारी वस्तु से पिहित हल्की देय वस्तु। * हल्की वस्तु से पिहित भारी देय वस्तु। * हल्की वस्तु से पिहित हल्की देय वस्तु।' इसके चरम भंग में वस्तु ग्राह्य है। 1556, 1557. पृथ्वी आदि का क्रमशः प्रायश्चित्त-दान निक्षिप्त दोष की भांति समझना चाहिए। गुरु से पिहित वस्तु लेने में आत्मविराधना की संभावना रहती है अतः उससे पिहित आहार ग्रहण करने में चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त उपवास है। अब मैं संहरण द्वार के बारे में कहूंगा। संहरण–संहृत, उत्किरण और विरेचन-ये तीनों शब्द एकार्थक हैं। 1. इस चतुर्भगी की व्याख्या करते हुए टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि गुरु अर्थात् भारी पदार्थ को उठाने में वस्तु हाथ से छूटने पर पैर आदि में चोट या अंगभंग संभव है। द्वितीय भंग में देय वस्तु गुरु है पर उसे उठाकर देना आवश्यक नहीं, कटोरी आदि से भी भिक्षा दी जा सकती है अत: दूसरे विकल्प में भिक्षा लेना कल्पनीय है। १.पिनिमटी प. 155 / २.पिण्डनिर्यक्ति की मलयगिरीया टीका के अनुसार द्वितीय और चतुर्थ भंग में आहार ग्रहण करना कल्प्य है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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