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________________ अनुवाद-जी-३५ 429 1536. अत्युष्ण रस ग्रहण करने से दो प्रकार की विराधना होती है-आत्मविराधना और परविराधना। इक्षुरस का छर्दन होने से द्रव्य की हानि होती है तथा वह भाजन छूटकर गिरने से टूट सकता है अतः साधु अत्यधिक उष्ण रस ग्रहण नहीं करता। यह इक्षुरस पकाने वाले चूल्हे की यतना है। 1537. (अग्निकाय के पश्चात् अब वायुकाय के अनंतर और परम्पर निक्षिप्त का कथन है) वायु द्वारा उत्क्षिप्त पर्पटिका-धान्य का छिलका अनंतर निक्षिप्त तथा वायु से भरी वस्ति और दृति पर रखी वस्तु परम्पर निक्षिप्त होती है। 1538. हरियाली पर निक्षिप्त मालपुआ आदि अनंतर निक्षिप्त तथा हरियाली पर रखे पिठरक आदि में निक्षिप्त मालपुआ परम्पर निक्षिप्त होता है। बैल आदि की पीठ पर रखा मालपुआ अनंतर निक्षिप्त तथा कुतुप आदि में भरकर बैल की पीठ पर रखा हुआ परम्पर निक्षिप्त होता है। 1539. यह सब साधु के लिए कल्प्य नहीं है। निक्षिप्त दोष का मैंने संक्षेप में वर्णन किया, अब पृथ्वीकाय आदि पर निक्षिप्त के प्रायश्चित्त-दान के बारे में कहूंगा। 1540. अनंतकाय वनस्पति को छोड़कर पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक के निक्षिप्त दोष के अनंतर निक्षिप्त में चतुर्लघु तथा परम्पर निक्षिप्त में लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1541. चतुर्लघु का तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल तथा लघुमास का पुरिमार्ध प्रायश्चित्त होता है। यह सचित्त निक्षिप्त का प्रायश्चित्त है। अब मैं मिश्र पृथ्वीकाय आदि पर निक्षिप्त का प्रायश्चित्त कहूंगा। 1542. पृथ्वीकाय आदि पर अनन्तर मिश्र निक्षिप्त लेने पर लघुमास तथा परम्पर मिश्र लेने पर पणग (पांच दिन-रात) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। अब मैं इनका तप रूप प्रायश्चित्त-दान कहूंगा। 1543. लघमास में परिमार्ध तथा पणग में निर्विगय तप की प्राप्ति होती है। अब मैं अनंतकाय वनस्पति के निक्षिप्त का प्रायश्चित्त-दान कहूंगा। 1544. अनंत वनस्पतिकाय में अनन्तर निक्षिप्त लेने पर चतुर्गुरु तथा परम्पर निक्षिप्त आहार लेने पर 'गुरुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। अब मैं इनका तप रूप प्रायश्चित्त-दान कहूंगा। 1545. चतुर्गुरु का उपवास तथा गुरुमास का एकासन तप प्राप्त होता है। अब मैं पिहितदोष के बारे में कहूंगा। 1546. अनन्तकाय वनस्पति की अनन्तर और परम्पर पिहित भिक्षा ग्रहण करने पर गुरुपणग तथा प्रत्येक वनस्पति पर अनन्तर और परम्पर पिहित भिक्षा ग्रहण करने पर लघुपणग प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। दोनों का तप रूप प्रायश्चित्त निर्विगय है। 1547. पृथ्वी आदि पर निक्षिप्त आदि के प्रायश्चित्त-दान का वर्णन किया, अब मैं संक्षेप में पिहित द्वार को कहूंगा। 1548. सचित्त आदि पर अचित्त पिहित की चतुर्भंगी होती है तथा निक्षिप्त दोष की भांति पिहित दोष में भी संयोगकृत भेद होते हैं।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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