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________________ 428 जीतकल्प सभाष्य पृथ्वी पर रखे पिठर पर जो आहार आदि निक्षिप्त होता है, वह परम्पर निक्षिप्त कहलाता है। 1528. सचित्त उदक आदि पर रखा नवनीत अनंतर निक्षिप्त तथा नाव पर रखा गया नवनीत परम्पर निक्षिप्त कहलाता है। तेजस्काय पर अनंतर और परम्पर निक्षिप्त सात प्रकार का होता है। 1529. अग्नि के सात प्रकार हैं-विध्यात, मुर्मुर, अंगारा, अप्राप्तज्वाला, प्राप्तज्वाला, समज्वाला तथा व्युत्क्रान्तज्वाला। प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं -अनन्तर और परंपर। 1530. जो अग्नि पहले दिखाई नहीं देती लेकिन बाद में ईंधन डालने पर स्पष्ट दिखाई देती है, वह विध्यात कहलाती है। राख से ढके हुए आपिंगल रंग के अर्धविध्यात अग्निकण मुर्मुर हैं। 1531. ज्वाला रहित जलते हुए अग्निकण अंगार कहलाते हैं। चूल्हे पर स्थित बर्तन से न छूती हुई अग्नि अप्राप्तज्वाला कहलाती है, यह अग्नि का चौथा भेद है। 1532. पिठरक का स्पर्श करने वाली पांचवीं प्राप्तज्वाला, जो अग्नि पिठर के ऊपरी भाग तक अर्थात् किनारे तक स्पर्श करती है, वह छठी समज्वाला तथा जो बर्तन के ऊपरी भाग को अतिक्रान्त कर देती है, वह सातवीं व्युत्क्रान्तज्वाला कहलाती है। इन सातों पर निक्षिप्त वस्तु अनंतर निक्षिप्त होती है। .. 1533. अग्नि का स्पर्श करते पिठर आदि पर रखा भक्तपान परम्पर निक्षिप्त कहलाता है। उस भक्तपान को ग्रहण करने से दोष होते हैं लेकिन यंत्र में इक्षुरस पकाने वाले चूल्हे पर रखे पिठर से ग्रहण करने में यह भजना है। 1534. पार्श्व में मिट्टी से अवलिप्त', विशाल मुख वाली कड़ाही या बर्तन से बिना गिराए हुए इक्षुरस लेना कल्पनीय है लेकिन वह अग्नि पर तत्काल चढ़ाया हुआ अर्थात् अधिक उष्ण नहीं होना चाहिए।' 1535. इक्षुरस लेते समय पिठर के किनारे का उपरितन भाग (कर्ण) का स्पर्श नहीं होना चाहिए। स्पर्श करने से रस नीचे राख आदि में गिरने से अग्निकाय के जीवों का वध हो सकता है। गुड़ रस से परिणामित जो उष्णजल है, वह ग्रहण करते समय अधिक गर्म नहीं होना चाहिए। १.अग्निकाय के सप्त भेद की व्याख्या हेतु देखें गा. 1530-32 का अनुवाद। 2. मिट्टी से अवलिप्त कड़ाही, अनत्युष्ण इक्षुरस, अपरिशाटी रस तथा अघटुंत-इन चार पदों के आधार पर 16 भंगों की रचना होती है। इन भंगों की रचना के विस्तार हेतु देखें पिनि की भूमिका पृ. 106-09 / 3. यह गाथा पिण्डनियुक्ति (253) में भी है। वहां इसकी व्याख्या करते हुए टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि बर्तन में चारों ओर मिट्टी के लेप का अर्थ यह है कि इक्षुरस लेते हुए यदि कुछ बिन्दु नीचे गिर जाएं तो उसे मिट्टी ही सोख ले, वे बिन्दु चूल्हे के मध्य अग्निकाय पर न गिरें। विशालमुख भाजन का तात्पर्य यह है कि इक्षुरस निकालते समय रस पिठरक के किनारे पर न लगे तथा पिठरक के ऊपर का भाग भग्न न हो। अघटुंत का अर्थ है कि रस आदि निकालते समय पिठर के ऊपरी भाग का स्पर्श न हो। १.पिनिमटी प. 153 / ४.गुड़ के कारण कम गर्म जल भी ग्राह्य होता है क्योंकि कड़ाही में लगे गुड रस के कारण वह जल शीघ्र ही अचित्त हो जाता है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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