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________________ अनुवाद-जी-१९-२३ 371 980. नौका आदि पद से लेकर उडुप-संतरण तक यतनायुक्त मुनि को सर्वत्र उत्सर्ग प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 19. भक्त, पान, शयन, आसन, अर्हत्-शय्या-चैत्यगृह, श्रमण-शय्या-उपाश्रय आदि के लिए जाने पर तथा उच्चार-प्रस्रवण आदि परिष्ठापित करने पर पच्चीस श्वासोच्छ्वास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 981. भक्त, पान को आहार तथा शयन को शय्या जानना चाहिए। आस धातु उपवेशन-बैठने के अर्थ में है अतः आसन का अर्थ है-बैठना। 982. अर्ह धातु पूजा के अर्थ में है। जो पूजा के योग्य हैं, वे अर्हत् हैं। वंदना और नमस्कार के योग्य होने के कारण वे अर्हत्' कहलाते हैं। 983. क्रोध आदि अरि' हैं अथवा अष्टविध कर्म रज हैं। अरि और रज का हनन करने से वे अरिहंत कहलाते हैं। 984, 985. शयन, शय्या, उपाश्रय तथा भक्त से लेकर शय्या तक के लिए सौ हाथ से ऊपर जाने पर, गमन और आगमन होने पर समिति की विशुद्धि के लिए यतनायुक्त मुनि के लिए सर्वत्र पच्चीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है। अब मैं उच्चार आदि के बारे में कहूंगा। 186. जो शब्द के साथ निःसृत होता है, वह उच्चार है। जो प्रसवित होता है, वह प्रस्रवण है। उच्चार और प्रस्रवण क्रमशः संज्ञा और कायिकी कहलाते हैं अथवा इनका शब्दार्थ इस प्रकार है९८७, 988. मल के साथ कायिकी-प्रस्रवण भी प्रायः सवित होता है अतः उच्चार कहलाता है। प्रायः स्रवित होने के कारण प्रस्रवण कहलाता है। सौ हाथ से दूर या पहले इनको परिष्ठापित करने पर पच्चीस श्वासोच्छ्वास से विशुद्धि होती है। 29. सौ हाथ के ऊपर गमन या आगमन करने पर पच्चीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है। प्राणिवध से सम्बन्धित स्वप्न आदि देखने पर सौ तथा मैथुन सम्बन्धी स्वप्न देखने पर 108 श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है। 989. गाथा का प्रथम अर्धभाग कंठ्य है। रात्रिकालीन स्वप्नदर्शन में प्राणवध करने या कराने पर 100 श्वासोच्छ्वास के कायोत्सर्ग से विशोधि होती है। 990. इसी प्रकार मृषावाद, अदत्त, परिग्रह और रात्रिभोजन से सम्बन्धित स्वप्न आने पर 100 श्वासोच्छ्वास 1. आवश्यक नियुक्ति में अर्ह का एक अर्थ योग्यता किया है। जो सिद्धिगमन के योग्य हैं, वे अर्हत् कहलाते हैं।' १.आवनि 583/3; सिद्धिगमणंच अरहा, अरहंता तेण वुच्चंति। 2. भाष्यकार ने क्रोध आदि को अरि कहा है। आवश्यक नियुक्ति में इंद्रियविषय, कषाय, वेदना, परीषह और उपसर्ग -इनको अरि कहा गया है। १.आवनि 583/1; इंदिय-विसय-कसाए, परीसहे वेयणा उवस्सग्गे। एते अरिणो हंता, अरिहंता तेण वुच्चंति।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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