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________________ 370 जीतकल्प सभाष्य 975. श्रुत की प्रस्थापना', उद्देशन (अध्ययन का निर्देश), समुद्देशन (पठित ज्ञान के स्थिरीकरण का निर्देश), अनुज्ञा (अध्यापन का निर्देश) तथा काल-प्रतिक्रमण में व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त होता है। 976. प्राणातिपात आदि से सम्बन्धित स्वप्न सावध कहलाता है। आदि' शब्द के ग्रहण से अनवद्य और प्रशस्त स्वप्न का भी ग्रहण हो जाता है। 977. (सूत्र 18) में आए 'च' शब्द के ग्रहण से दुःस्वप्न और दुर्निमित्त भी ग्रहण हो जाते हैं। प्रथम व्रत (प्राणातिपात) आदि में सर्वत्र व्युत्सर्ग से विशोधि होती है। 978. नौका चार प्रकार की होती है-१. समुद्री नौका 2. उद्यानी 3. अवयानी 4. तिर्यक्गामिनी। इनमें प्रथम समुद्र में चलने वाली तथा अंतिम तीन नदी में चलने वाली होती हैं। 979. नदी-संतार चार प्रकार का होता है१. संघट्ट-पादतल से आधी जंघा तक पानी का होना। 2. लेप-नाभि तक जल का होना। 3. लेपोपरि-नाभि से ऊपर तक जल का होना। 4. बाहु तथा उडुप-बाहु तथा छोटी नौका आदि से नदी को पार करना। 1. अनयोग के प्रारम्भ में की जाने वाली क्रिया विशेष प्रस्थापना कहलाती है। 2. चूर्णिकार के अनुसार दुनिमित्त और दुःस्वप्न आदि में प्रायश्चित्त स्वरूप आठ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग प्राप्त होता है। १.जीचू पृ. 11 / 3. प्रतिस्रोतगामिनी नौका उद्यानी, अनुस्रोतगामिनी अवयानी तथा एक तट से दूसरे तट तक नदी के जल को काटकर तिरछी चलने वाली तिर्यक्गामिनी नौका कहलाती है।' १.जीचूप.११; उज्जाणी पडिसोत्तगामिणी। ओयाणी पुण अणुसोयगामिणी।तिरिच्छगामिणी णदि छिंदंती गच्छड़। 4. ओघनियुक्ति में नौका-संतरण की विधि का उल्लेख मिलता है। नौका-संतरण के समय यदि गृहस्थ न हो तो मुनि नालिका से नदी के जल को मापकर अपने उपकरणों के पास लौटता है फिर वह अपने उपकरणों और पात्रों को बांधता है। यदि नदी को नौका से पार करना है तो मुनि नौका पर पहले नहीं चढ़ता, कुछ यात्रियों के चढ़ने के बाद नदी पर चढ़ता है। वह नौका में चढ़ने के समय सागारी अनशन करता है। वह नौका के आगे, पीछे या मध्य में नहीं बैठता, एक पार्श्व में अप्रमत्त होकर बैठता है और नमस्कार महामंत्र के जप में लीन रहता है। नौका के तट पर पहुंचने पर मुनि सबसे पहले नहीं उतरता। सब यात्रियों के उतरने के बाद भी नहीं उतरता। कुछ यात्रियों के उतरने के बाद उतरता है। तट पर आने के बाद एक पैर को जल में तथा दूसरे पैर को आकाश में ऊपर रखता है, जब पानी झर जाता है तब पैर को सूखी भूमि पर रखता है। दूसरे पैर को रखने की भी यही विधि है फिर मुनि 25 श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग करता है। निशीथ (12/43) में नंदी-संतरण का निषेध है। उसके भाष्य में नदी-संतरण के अनेक दोष बताए है। 1. ओनि 34-38 // २.निभा 4224 ; सावयतेणे उभयं, अणुकंपादी विराहणा तिण्णि। संजम आउभयं वा, उत्तर-णावुनरंते य॥
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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