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________________ अनुवाद-जी-१७, 18 369 17. कालातीत, अध्वातीत तथा सूर्योदय से पहले और सूर्यास्त के बाद ग्रहण किए हुए आहार का अशठभाव से परिष्ठापन करता हुआ मुनि शुद्ध होता है। ग्लान आदि के कारण से ग्रहण किया हुआ आहार बचने पर उसका परिष्ठापन करने वाला शुद्ध होता है। 963. प्रथम प्रहर में गृहीत अशन और पान आदि को तृतीय प्रहर अतिक्रान्त करके रखना कालातीत' आहार कहलाता है। 964. अर्द्ध योजन से अधिक दूरी से आनीत या नीत भक्त और पान आदि अध्वातीत या मार्गातीत आहार कहलाता है। मार्ग का अतिक्रमण दो कारणों से होता है-शठता से तथा अशठता से। 965, 966. विकथा और क्रीड़ा आदि से मार्ग का अतिक्रमण करने वाला शठ होता है तथा ग्लान में व्याप्त होने से, सागारिक के कारण, स्थण्डिल भूमि के अभाव में, स्तेन तथा सांप आदि के भय से मार्ग अतिक्रान्त हो जाए तो वह अशठ होता है। 967. इन कारणों से अशठ साधु विधिपूर्वक आहार का विवेक-परित्याग करता हुआ शुद्ध होता है। सूर्य के उदित न होने पर तथा अस्तमित होने पर आहार ग्रहण करने पर भी निम्न कारणों से साधु अशठ होता है९६८-७१. पर्वत, राहु, मेघ, धूअर, पांशु, रज का आवरण-इन कारणों से सूर्य न उगने पर भी वह उग गया है तथा अस्त होने पर भी अस्त नहीं हुआ है, ऐसा सोचकर आहार ग्रहण करना, बाद में ज्ञात हुआ कि सूर्य उदित नहीं हुआ था अथवा अस्त हो गया था, यह जानने पर भी उसका भोग करने वाला शठ तथा आचार्य, ग्लान, प्राघूर्णक, क्षपक, बाल और वृद्ध-इनके लिए जो ग्रहण किया जाता है, उस कारण गृहीत आहार का विधिपूर्वक उपभोग तथा बचने पर विधिपूर्वक परिष्ठापन करने पर शुद्ध होता है। यह विवेक द्वार है, अब मैं व्युत्सर्ग द्वार कहूंगा। 18. गमन, आगमन, विहार, श्रुत के उद्देश, समुद्देश आदि, सावध स्वप्न आदि तथा नौका से नदी पार करने पर व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त से शुद्धि होती है। 972, 973. वसति या गुरु के पास से जाना गमन तथा दूसरे स्थान से पुनः आना आगमन है, यह गमनागमन कहलाता है। स्वाध्याय के लिए साधु का अन्यत्र जाना गमनागमन विहार जानना चाहिए। 974. समिति की विशुद्धि के लिए उत्सर्ग प्रायश्चित्त होता है। उद्देश आदि श्रुतज्ञान श्रुत कहलाता है। १.साधु संचय और सन्निधि नहीं कर सकता। संचय करने वाला साधु गृहस्थ की भांति हो जाता है। जिनकल्पी जिस प्रहर में आहार ग्रहण करता है, उसी प्रहर में उसका भोग करते हैं। स्थविरकल्पी प्रथम प्रहर में आनीत आहार का तीसरी प्रहर तक भोग कर सकते हैं, उसके बाद वह आहार परिष्ठापनीय हो जाता है। उस आहार को स्वयं खाने वाला अथवा दूसरों को देने वाला चतुर्लघू प्रायश्चित्त को प्राप्त करता है। १.कसू 4/12 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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