SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 562
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 368 जीतकल्प सभाष्य 953. इस प्रकार के यतनायुक्त साधु की विशोधि तदुभय प्रायश्चित्त से होती है। दर्शन आदि में सहसा अतिचार लगने पर भी तदुभय प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 954. तदुभय द्वार समाप्त हो गया, अब विवेक द्वार कहूंगा। किसका विवेक करना चाहिए, उसको स्पष्ट करने के लिए यह गाथा है। 16. गीतार्थ साधु ने उपयोगपूर्वक आहार, उपधि और शय्या आदि को ग्रहण किया। ग्रहण करने के पश्चात् ज्ञात हुआ कि वह अशुद्ध था। वहां विधिपूर्वक अशुद्ध का विवेक-परिष्ठापन करता हुआ वह मुनि शुद्ध-निरतिचार होता है। 955. पिडि धातु संघात अर्थ में प्रयुक्त होती है। पिण्ड शब्द संघात-समूह का वाचक है। पिण्ड सचित्त आदि भेद से नौ-नौ प्रकार का होता है। 956. पिण्ड नौ प्रकार का होता है—१. पृथ्वीकाय 2. अप्काय 3. तेजस्काय 4. वायुकाय 5. वनस्पतिकाय 6. द्वीन्द्रिय 7. त्रीन्द्रिय 8. चतुरिन्द्रिय 9. पंचेन्द्रिय। 957. पृथ्वी आदि प्रत्येक के सचित्त, अचित्त और मिश्र आदि तीन-तीन भेद होते हैं। प्रभेद करने पर सत्तावीस भेद होते हैं। यह संक्षेप में पिण्ड का वर्णन किया गया है। 958. संक्षेप में उपधि' दो प्रकार की होती है–१. औधिक' 2. औपग्रहिक। इनके विभाग भी होते हैं, वह औघनियुक्ति में वर्णित है। 959. शय्या को वसति कहा जाता है, आदि शब्द से डगलग और औषध-भेषज को भी ग्रहण करना चाहिए। 960. जो आचारचूला के पिण्डैषणा, पानैषणा, वस्त्रैषणा तथा शय्या आदि अध्ययनों के अर्थ को जानता है, वह गीतार्थ-कृतयोगी होता है। 961, 962. अथवा छेदसूत्र आदि के सूत्रार्थ को जानने वाला गीतार्थ कहलाता है। उपयुक्त होकर ग्रहण करने पर बाद में उसे ज्ञात हुआ कि यह आहार उद्गम, उत्पादना एवं एषणा आदि के दोषों से अशुद्ध है अथवा शंका आदि होने पर विधिपूर्वक उसको अलग करने पर वह शुद्ध हो जाता है। १.जो संयम के धारण और पोषण में सहायक होती हैं, वह उपधि है। ओघनिर्यक्ति में उपधि शब्द के आठ एकार्थक मिलते हैं -उपधि, उपग्रह, संग्रह, प्रग्रह, अवग्रह, भंडक, उपकरण और करण। १.ओनिटी प.१२ ; उपदधातीत्युपधिः, उप-सामीप्येन संयमंधारयति पोषयति चेत्यर्थः। 2. ओनि 666; उवही उवग्गहे संगहे य तह पग्गहुग्गहे चेव। भंडग उवगरणे या, करणे वि य हुंति एगट्ठा // २.औधिक उपधि-सदा पास में रखी जाने वाली उपधि। ३.औपग्रहिक उपधि-प्रयोजन विशेष से ग्रहण की जाने वाली उपधि। 4. बृहत्कल्पभाष्य की टीका के अनुसार जिसको तप करने का अभ्यास हो, वह कृतयोगी कहलाता है।' 1. बृभा 4946 टी पृ. 1323; कृतयोगी तपःकर्मणि कृताभ्यासः /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy