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________________ अनुवाद-जी-१४-१६ 367 940. इस प्रकार संभ्रम आदि यथोद्दिष्ट कारणों के होने पर साधु सर्व व्रतों के अतिचारों को परवश होकर करता है। 941-43. परवश होकर साधु पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पति की विराधना, वृक्ष-आरोहण, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिंदिय और पंचेन्द्रिय की विराधना करे, इसी प्रकार अनात्मवश होकर मृषावाद आदि का आचरण करे, पिंडविशोधि आदि उत्तरगुणों में विराधना करे तो उस अतिचार की विशुद्धि तदुभय प्रायश्चित्त से होती है। तदुभय प्रायश्चित्त का अर्थ है-गुरु के पास आलोचना तथा उनके कहने पर 'मिच्छामि दुक्कडं' बोलना। 944. मूलगुण और उत्तरगुण में इस अतिचार का सेवन किया या नहीं, जहां इसका ज्ञान करना संभव नहीं होता, वहां आशंका होती है। आशंका होने पर तदुभय प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 14. उपयुक्त होने पर भी साधु दुश्चिन्तित, दुर्भाषित, दुश्चेष्टित आदि' बहुविध प्रवृत्तियों में होने वाले दैवसिक आदि अतिचारों को नहीं जानता है। 945. दु धातु जुगुप्सा अर्थ में है, संयम का उपरोधी होने के कारण वह कुत्सित होता है। उसको यदि मन से चिन्तित किया जाता है तो वह दुश्चिन्तित जानना चाहिए। 146. इसी प्रकार दुर्भाषित और दुश्चेष्टित जानना चाहिए। मूलसूत्र में आए 'आदि' शब्द से दुष्प्रतिलेखित दुष्प्रमार्जित आदि को भी जानना चाहिए। 947. इस प्रकार के अतिचार बहुत बार होते हैं। उपयुक्त होने पर भी वह उन्हें नहीं जानता, स्मरण नहीं करता। 948. आदि' शब्द के ग्रहण से रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक अतिचारों को जानना चाहिए। 15. सब अपवाद पदों में दर्शन, ज्ञान और चारित्र से सम्बन्धित अपराध पदों में उपयुक्त साधु के बदुभय प्रायश्चित्त होता है। सहसाकरण आदि में भी यही प्रायश्चित्त होता है। 149. (उत्सर्ग पद प्रथम और अपवाद पद द्वितीय कहलाता है।) सर्व शब्द के ग्रहण से सब अपराधपद जानने चाहिए। 150. कारण होने पर यतनायुक्त गीतार्थ मुनि के दर्शन, ज्ञान और चारित्र में ये अपराध-पद होते हैं१५१, 952. जैसे तीक्ष्ण उदक के वेग में तथा विषम और कीचड़ युक्त मार्ग पर चलते हुए प्रयत्न करने पर भी अवश होकर व्यक्ति उसमें गिर जाता है, वैसे ही सुविहित श्रमण के पूर्ण प्रयत्न से यतना करने पर भी कर्मोदय के कारण विराधना हो जाती है। - 1. तदुभय प्रायश्चित्त का अर्थ है -गुरु के पास आलोचना तथा उसके बाद गुरु के द्वारा मिथ्यादुष्कृत का उच्चारण। 2. आदि' शब्द के ग्रहण से दुष्प्रतिलेखित तथा दुष्प्रमार्जित का ग्रहण करना चाहिए। 1. जीचू पृ.१०; आइसहसंगहियाणाभोगेण य।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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