________________ 372 जीतकल्प सभाष्य का कायोत्सर्ग होता है। मैथुन से सम्बन्धित स्वप्न आने पर 108 श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है।' 21. दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण का पचास, पाक्षिक का तीन सौ, चातुर्मासिक का पांच सौ तथा संव्वत्सरी से सम्बन्धित प्रतिक्रमण का 1008 श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है। 991. दैवसिक आदि पदों के क्रमशः उच्छ्वास का प्रमाण कैसे होता है, उसको मैं कहूंगा। 992, 993. 'लोगस्स उज्जोयगरे' इस स्तवपाठ का चार बार पुनरावर्तन करने पर सौ श्वासोच्छ्वास होते हैं। दो बार परावर्तन करने से पचास तथा बारह बार लोगस्स करने से तीन सौ श्वासोच्छ्वास होते हैं। बीस लोगस्स के पांच सौ तथा चालीस लोगस्स के एक हजार आठ श्वासोच्छ्वास का परिमाण होता है। इस प्रकार दैवसिक आदि कायोत्सर्ग का यह परिमाण होता है। 994. अथवा दैवसिक आदि कायोत्सर्ग का परिमाण इस प्रकार है-दैवसिक का पच्चीस, रात्रिक का साढे बारह. पाक्षिक का पचहत्तर. चातर्मासिक का एक सौ पच्चीस तथा वार्षिक का दो सौ बावन श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग। 22. उद्देश (पढ़ने की आज्ञा), समुद्देश (पठित ज्ञान के स्थिरीकरण का निर्देश) और अनुज्ञा ( अध्यापन की आज्ञा ) में सत्ताईस श्वासोच्छ्वास, प्रस्थापन तथा काल-प्रतिक्रमण में आठ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है। 995. उद्देशक, अध्ययन, श्रुतस्कन्ध और अंग के उद्देशन आदि पदों में सत्ताईस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है। 996, 997. प्रस्थापन और काल-प्रतिक्रमण में आठ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है। 'आदि' शब्द के ग्रहण से अनुयोग का प्रस्थापन काल, प्रतिक्रमण तथा अपशकुन होने पर सर्वत्र आठ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग जानना चाहिए। 23. उद्देशक, अध्ययन, श्रुतस्कन्ध, अंग तथा काल-प्रतिक्रमण आदि में प्रमत्त साधु के ज्ञान आदि अतिचार होते हैं। 1. आवश्यकचूर्णि में मैथुन सम्बन्धी कायोत्सर्ग का स्पष्टीकरण मिलता है। स्वप्न में दृष्टि-विपर्यास होने पर सौ श्वासोच्छ्वास तथा स्त्री-विपर्यास होने पर एक सौ आठ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग होता है।' 1. आवचू 2 पृ. 267 ; मेहुणे दिट्ठीविप्परियासियाए सतं, इत्थीए सह अट्ठसयं। 2. मान्यता विशेष का उल्लेख करते हुए चूर्णिकार कहते हैं कि सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में चालीस लोगस्स का एक हजार श्वासोच्छ्वास का प्रमाण होता है फिर नमस्कार महामंत्र के आठ श्वासोच्छ्वास और किए जाते हैं, इससे 1008 की संख्या पूरी हो जाती है। सांवत्सरिक कायोत्सर्ग का कालमान लम्बा होता है। वह निर्विघ्न समाप्त हुआ इसलिए मंगल के लिए अंत में नमस्कार महामंत्र का कायोत्सर्ग किया जाता है। १.जीचू पृ. 11; वारिसिय पडिक्कमणे चत्तालीसाए उज्जोएहिं पणुवीसा गुणिया सहस्समुस्सासाणं होइ।अन्ने अट्ठ ऊसासा नमोक्कारे कज्जन्ति। तओ अट्टत्तरं सहस्सं होइ।सो य नमोक्कारो संवच्छरिए बहुओ कालो निविग्घेणं गओ त्ति चिन्तिज्जड़ मंगलत्थं पज्जंते।