________________ अनुवाद-जी-२३ 373 998. ओघ और विभाग-इन दो भेदों से ज्ञानाचार दो प्रकार का होता है। उद्देशक, अध्ययन, श्रुतस्कन्ध और अंग में विभागतः ज्ञानाचार होता है। 999. प्रवचन में उद्देशक, अध्ययन आदि चारों के काल, विनय आदि आठ प्रकार के अतिचार कहे गए हैं। 1000. ज्ञानाचार आठ प्रकार का होता है-१. काल 2. विनय 3. बहुमान 4. उपधान 5. अनिहवन 6. व्यञ्जन 7. अर्थ 8. और तदुभय। 1001. जो अकाल में स्वाध्याय करता है अथवा अस्वाध्याय में स्वाध्याय करता है, स्वाध्याय-काल में स्वाध्याय नहीं करता, वह काल से सम्बन्धित ज्ञानाचार है।' 1002. जो जात्यादि से उन्मत्त और स्तब्ध होकर गुरु का विनय नहीं करता, गुरु की अवहेलना करता है, वह विनय अतिचार है। 1003, 1004. श्रुतज्ञान और गुरु के प्रति जो भक्ति और बहुमान नहीं करता, वह बहुमान अतिचार है। भक्ति उपचार कहलाती है तथा अंतरंग अनुराग बहुमान कहलाता है। यह बहुमान सम्बन्धित अतिचार . संक्षेप में वर्णित है। आयम्बिल आदि तप उपधान' कहलाता है। १.यथाभिहित काल के अतिरिक्त दूसरा समय अकाल कहलाता है, जैसे प्रथम पौरुषी में अर्थ तथा दूसरी पौरुषी में सूत्र करना अकाल स्वाध्याय है। निशीथ भाष्य में एक प्रश्न उपस्थित किया है कि रोगी की चिकित्सा का और वस्त्रों को धोने का क्या काल और क्या अकाल? इसी प्रकार मोक्ष का हेतु ज्ञान है, उसका भी काल और अकाल क्यों? समाहित करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि आहार और विहार भी मोक्ष के साधन हैं अत: काल से सम्बद्ध हैं। जैसे विद्या की साधना काल-प्रतिबद्ध है, वैसे ही काल में किया हुआ ज्ञान निर्जरा का हेतु बनता है। अकाल में किया हुआ ज्ञान उपघातकारक तथा कर्मबंध का हेतु बनता है। १.निचू 1 पृ.७; जहाभिहियकालाओ अण्णो अकालो भवति,जहा सुत्तं बितियाए अत्थं पढमाए पोरुसिए वा। २.गुरु से नीचे बैठना तथा हाथ जोड़कर रहना विनय आचार है। . १.निभा 13; णीयासणंजलीपग्गहादि विणयो। ३.सत्र ग्रहण के समय विनय नहीं करने पर लघमास तथा अर्थ से सम्बन्धित विनय न करने पर गरुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। १.निचू 1 पृ. 9; सुत्ते मासलहु, अत्थे मासगुरु। ४.निशीथ भाष्य एवं उसके चूर्णिकार ने भक्ति और बहुमान का अंतर स्पष्ट किया है। अभ्युत्थान, दंडग्रहण, पादप्रोञ्छन तथा आसन आदि प्रदान करके जो सेवा की जाती है, वह भक्ति है तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, भावना आदि गुणों से युक्त के प्रति जो आंतरिक प्रीति होती है, वह बहुमान कहलाता है। बहुमान में भक्ति की भजना है लेकिन भक्ति में बहुमान की नियमा है। भक्ति और बहुमान न करने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। १.निचूपृ. 10; अब्भुट्ठाणं डंडग्गह-पायपुंच्छणासणप्पदाणग्गहणादीहिं सेवा जा सा भत्ती भवति।णाण-दसण-चरित्त तव-भावणादिगुणरंजियस्स जो रसो पीतिपडिबंधो सो बहुमाणो भवति॥ २.निभा 14 / जो अध्ययन को पुष्ट करता है, वह उपधान तप है। जिस श्रुत के अध्ययन काल में जो आगाढ़ और अनागाढ़ तप हो, उसे अवश्य करना चाहिए। उपधानपूर्वक श्रुतग्रहण करने से ही श्रुतोपलब्धि सफल होती है। 1. व्यभा६३ मटी प. 25 ; उपदधाति पुष्टिं नयत्यनेनेत्युपधानं तपः।