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________________ 374 जीतकल्प सभाष्य 1005. जो साधु उपधान' तप नहीं करता अथवा उस पर श्रद्धा नहीं करता, वह उपधान सम्बन्धी अतिचार है। अब मैं निह्नवन के बारे में कहूंगा। 1006, 1007. निह्नवन का अर्थ है-अपलाप करना। मैंने अमुक आचार्य के पास अध्ययन नहीं किया, अन्य युगप्रधान आचार्य ने वाचना दी, इस प्रकार ज्ञानदाता के नाम को छिपाना निह्नवन अतिचार है। इसका मैंने संक्षेप में वर्णन किया, अब मैं व्यञ्जन आदि पदों के अतिचारों को कहूंगा। 1008. व्यञ्जन अक्षर कहलाता है। अक्षर से निष्पन्न को श्रुत जानना चाहिए। प्राकृत में निबद्ध श्रुत को संस्कृत आदि में करना व्यञ्जन अतिचार है। 1009. अथवा मूल व्यञ्जन के स्थान पर दूसरा व्यञ्जन करना भी व्यञ्जन अतिचार है। जैसे धर्म उत्कृष्ट मंगल है। दया, संवर और निर्जरा उसके अंग हैं। 1010. अथवा मात्रा, बिन्दु और अन्य पर्यायवाची शब्द का प्रयोग करके अर्थ को बाधित करना व्यञ्जन अतिचार है। जिसके द्वारा अर्थ व्यक्त होता है, वह व्यञ्जन श्रुत कहलाता है। . 1011. व्यञ्जन के भेद से कभी अर्थ का नाश हो जाता है। अर्थ विनष्ट होने पर चारित्र का नाश तथा चारित्र का नाश होने पर मोक्ष का अभाव होता है। 1012. मोक्ष के अभाव में दीक्षा आदि प्रयत्न निरर्थक हो जाते हैं। इन दोषों के कारण सूत्र का भेद नहीं करना चाहिए। 1013. व्यञ्जन भेद के बारे में वर्णन कर दिया, अब मैं अर्थ-भेद के बारे में कहूंगा। उन्हीं व्यञ्जनों के द्वारा अन्य अर्थ की कल्पना करना अर्थ-भेद है। 1014. आचारांग सूत्र के पांचवें आवंति' अध्ययन में आवंती केआवंती लोयंसि विप्परामुसंति' (5/1) पाठ मिलता है। 1015, 1016. यह आर्ष सूत्र है। सप्रयोजन या निष्प्रयोजन इसके अर्थ में मूढ़ होना या अन्य अर्थ करना 1. दुर्गति में गिरती हुई आत्मा को जिससे धारण किया जाता है, वह उपधान है। सूत्र दो प्रकार के होते हैं -आगाढ़ और अनागाढ़। आगाढ़ सूत्र में भगवती आदि तथा अनागाढ़ में आचारांग आदि सूत्र आते हैं। इन दोनों सूत्रों में उपधान तप करना चाहिए। उपधान के अन्तर्गत निशीथ भाष्य में अशकटपिता का दृष्टान्त दिया गया है। १.निभा 15; दोग्गइ पडणुपधरणा उवधाणं। 2. निचू 1 पृ. 11 / २.मूल पाठ में 'अहिंसा संजमो तवो' (दश 1/1) पाठ है लेकिन यहां अहिंसा के स्थान पर दया, संयम के स्थान पर संवर तथा तप के स्थान पर निर्जरा शब्द का प्रयोग हुआ है। निशीथ चूर्णि में 'पुण्णं कल्लाणमुक्कोस, दया संवर निज्जरा' पाठ मिलता है। यहां धम्म के स्थान पर पुण्ण, मंगल के स्थान पर कल्लाण तथा उक्किट्ठ के स्थान पर उक्कोस व्यञ्जनभेद का उदाहरण है। ३.प्राकृत से संस्कृत करने पर, मात्रा, बिंदु, अक्षर या पद को बदलने पर लघुमास तथा सूत्र को अन्यथा करने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। १.निचू 1 पृ.१२, सक्कयमत्ताबिंदुअक्खरपयभेएसु वट्टमाणस्स मासलहु / अण्णंसुत्तं करेति चउलहुँ।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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