________________ अनुवाद-जी-२४, 25 375 अर्थ-भेद' है। उदाहरणस्वरूप 'आवंति' का अर्थ देश या जनपद, केया का अर्थ अरघट्ट के कूप की डोरी, वंती-वह नीचे गिर गई अतः लोग आपस में विवाद करते हैं। 1017. यह अर्थ-विसंवाद का उदाहरण है, अब मैं तदुभय द्वार को कहूंगा। जहां सूत्र और अर्थ दोनों विनष्ट हो जाते है, वह तदुभय अतिचार कहलाता है। 1018. धर्म उत्कर्ष रूप मंगल है। अहिंसा मस्तक पर पर्वत है। जिसकी धर्म में सदा बुद्धि रहती है, उसको देवता भी नष्ट कर देते हैं। 1019. यथाकृत काष्ठ पर बढ़ई भोजन पकाता है। जहां भक्तार्थी आसक्त होते हैं, वहां गधा दिखाई देता 1020. जहां सूत्र और अर्थ-दोनों का नाश हो जाता है, वह तदुभय भेद है। इस प्रकार नहीं करना चाहिए, इसमें पूर्वोक्त दोष होते हैं। (देखें 1011, 1012 गाथा का अनुवाद) 1021. यह आठ प्रकार का ज्ञानाचार जिनेश्वर के द्वारा प्रज्ञप्त है। उद्देशक आदि के प्रायश्चित्त क्रमश: इस प्रकार हैं२४. अनागाढ़ में उद्देशक आदि का निर्विगय, पुरिमार्ध, एकासन और आयम्बिल तथा आगाढ़ में पुरिमार्ध से उपवास पर्यन्त प्रायश्चित्त जानना चाहिए। इसी प्रकार अर्थ में जानना चाहिए। 1022, 1023. अनागाढ़ स्थिति में उद्देशक सम्बन्धी अतिचार में निर्विगय, अध्ययन सम्बन्धी अतिचार में पुरिमार्ध, श्रुतस्कन्ध में एकासन, अंग सम्बन्धी अतिचार में आयम्बिल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। आगाढ़ कारण में उद्देशक में पुरिमार्ध, अध्ययन में एकासन, श्रुतस्कन्ध में आयम्बिल तथा अंग सम्बन्धी अतिचार में उपवास प्रायश्चित्त होता है। इसी प्रकार अर्थ आदि में भी प्रायश्चित्त जानना चाहिए। 25. सामान्यतः अप्राप्त, अपात्र और अव्यक्त' को उद्देशन आदि की वाचना देने पर सूत्र के सम्बन्ध 1. अन्य व्यञ्जन करने पर गुरुमास तथा अन्य अर्थ करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। १.लिचू 1 पृ.१३; अत्थस्स अण्णाणि वंजणाणि करेंतस्स मासगुरु,अह अण्णं अत्थं करेति तो चउगुरुगा। २.इस गाथा में अर्थ और व्यञ्जन दोनों के भेद का उदाहरण दिया गया है। गाथा का पूर्वार्द्ध मूलतः दशवैकालिक 1/4 का पाठ है-'अहागडेसु रीयंति, पुप्फेसु भमरा जहा'। इसके स्थान पर भाष्यकार ने अधाकरेसुरंधंति कट्ठसु रहकारी उ' पाठ दिया है, यह तदुभय भेद का उदाहरण है। निशीथ भाष्य की चूर्णि में तदुभय भेद का निम्न पाठ मिलता है-'अहाकडेहि रंधंति, कट्टेहिं रहकारिया' (निचू 1 पृ. 13) / गाथा का उत्तरार्ध मूलतः दशवैकालिक 3/4 का पाठ है-'राइभत्ते सिणाणे य, गंधमल्ले य वीयणे' इसके स्थान पर भाष्यकार के अनुसार 'रण्णो भशंसिणो जत्थ, गद्दभो जत्थ दीसति' पाठ तदुभय भेद का उदाहरण है। निशीथ चूर्णि में इसका भिन्न पाठ इस प्रकार है-'रण्णो भत्तंसिणो जत्थ, गद्दहो तत्थ खज्जति'। इन उदाहरणों में व्यञ्जनभेद से अर्थभेद भी स्पष्ट है। 3. सोलह वर्ष पहले साधु वय से अव्यक्त होता है, बाद में व्यक्त कहलाता है। श्रुत से निशीथ पढ़ने वाला व्यक्त कहलाता है। १.तत्र सोलसवरिसारेण वयसाऽव्यत्तो परेण वत्तो, श्रुतेन च अधीतनिशीथो व्यक्तः।