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________________ 376 जीतकल्प सभाष्य में आयम्बिल तथा अर्थ के संदर्भ में उपवास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1024. सामान्य रूप से समग्र सूत्र सम्बन्धी अतिचार में आयम्बिल तथा सूत्रार्थ में उपवास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1025. अप्राप्त दो प्रकार के होते हैं -सूत्र से अप्राप्त' तथा अर्थ से अप्राप्त। प्रथम 'अपत्त' का अर्थ सूत्र और अर्थ से अप्राप्त तथा दूसरे 'अपत्त' का अर्थ अपात्र जानना चाहिए। 1026. चिड़चिड़ाहट आदि अवगुणों के कारण मुनि अपात्र होता है। अव्यक्त दो प्रकार से होता है-वय से, श्रुत से। अपात्र और अप्राप्त को उद्देश आदि की वाचना देने से चतुर्गुरु (उपवास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1027. पात्र को उद्देशन आदि पदों की वाचना न देने पर चतुर्गुरु (उपवास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। आपवादिक स्थिति में कारण होने पर यदि वाचना नहीं दे सके तो वह शुद्ध होता है। . 26. काल-विसर्जन आदि न करने पर, मण्डली-भूमि का प्रमार्जन आदि न करने पर निर्विगय प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। सूत्र और अर्थ में अक्ष-रचना और निषद्या न करने पर उपवास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1028. काल-विसर्जन न करने का अर्थ हैं-काल का प्रतिक्रमण नहीं करना। मण्डली तीन प्रकार की होती है। वसुधा को भूमि जानना चाहिए। 1029. मण्डली के तीन प्रकार हैं-भोजनमण्डली, सूत्रमण्डली और अर्थमण्डली। काल-प्रतिक्रमण और मण्डली-भूमि का प्रमार्जन न करने पर निर्विगय प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1. विवक्षित शास्त्रों के सूत्र और अर्थ को क्रम से पढ़ते हुए जिस ग्रंथ को पढ़ने की दीक्षापर्याय पूरी नहीं हो, वह अप्राप्त कहलाता है। व्यवहारभाष्य में इसका क्रम प्राप्त होता है। जीतकल्प चूर्णि की विषमपद व्याख्या में आचार्य श्रीचंद्रसूरि ने दीक्षापर्याय के आधार पर पढ़े जाने वाले ग्रंथों का क्रम प्रस्तुत किया है। तीन वर्ष दीक्षापर्याय वाले साधु को आचारप्रकल्प (निशीथ), चार वर्ष के दीक्षित को सूत्रकृतांग, पांच वर्ष दीक्षित पर्याय वाले को दशाश्रुत, बृहत्कल्प और व्यवहार, आठ वर्ष दीक्षापर्याय वाले को स्थानांग और समवायांग, दस वर्ष दीक्षापर्याय वाले को भगवती, ग्यारह वर्ष दीक्षापर्याय वाले को क्षुद्रिकाविमान आदि पांच अध्ययन, बारह वर्ष के दीक्षित साधु को अरुणोपपात आदि पांच अध्ययन, तेरह वर्ष पर्याय वाले साधु को उत्थानश्रुत आदि चार ग्रंथ, उन्नीस वर्ष दीक्षापर्याय वाले को दृष्टिवाद नामक बारहवां अंग पढ़ना कल्प्य है। इससे अन्यथा करने पर आज्ञाभंग और महापाप होता है। 1. जीचूवि पृ. 44 ; तत्सूत्रमर्थं वा विवक्षितशास्त्रसत्कं क्रमेणाधीयानो न प्राप्नोति; पठनविषये व्रतादिपर्यायो वा यस्य न पूर्यते सोऽप्राप्तः। 2. जीचूवि पृ. 44 / 2. चूर्णिकार के अनुसार 'आदि' शब्द से अनुयोग का विसर्जन न करना भी गृहीत है। १.जीचू पृ.१२; आइसद्देण अणुओगस्स अविसज्जणं।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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