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________________ अनुवाद-जी-२६, 27 377 1030. सूत्र और अर्थ में निषद्या तथा अक्ष-रचना नहीं करना। सूत्र में आए 'च' शब्द से वंदना और कायोत्सर्ग गृहीत हैं, इन्हें न करने पर उपवास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 27. आगाढ़ योग के सर्वभंग में बेला, देश भंग में उपवास तथा अनागाढ़ योग के सर्वभंग में उपवास और देशभंग में आयम्बिल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1031. योग दो प्रकार का होता है-आगाढ़' और अनागाढ़। आगाढ़ और अनागाढ़ भंग के दो-दो भेद होते हैं -देश और सर्व। 1032. आगाढ़ योग के सर्वभंग में बेला तथा देशभंग में उपवास तप की प्राप्ति होती है। अनागाढ़ के सर्व भंग में उपवास तथा देशभंग में आयम्बिल तप की प्राप्ति होती है। 1033. शिष्य प्रश्न पूछता है कि देश और सर्व में भंग कैसे होता है? (आचार्य उत्तर देते हैं)-मैं इसका स्फुट और स्पष्ट गाथाओं में वर्णन करूंगा। 1034. जो बिना प्रयोजन विकृति का सेवन करता है, आयम्बिल नहीं करता तथा उस पर श्रद्धा भी नहीं रखता, वह सर्वभंग है। देशभंग का वर्णन इस प्रकार है१०३५. जो कायोत्सर्ग किए बिना भोजन करता है अथवा भोजन करके बाद में कायोत्सर्ग करता है अथवा गुरु से कायोत्सर्ग की आज्ञा लिए बिना कायोत्सर्ग करता है, यह देश भंग कहलाता है। 1036. यह आठ प्रकार का ज्ञानाचार संक्षेप में वर्णित है। दर्शनाचार आठ प्रकार का होता है। 1037. दर्शनाचार के आठ प्रकार हैं-१. नि:शंकित 2. नि:कांक्षित 3. निर्विचिकित्सा 4. अमूढदृष्टि 5. उपबृंहण 6. स्थिरीकरण 7. वात्सल्य 8. प्रभावना। 1038. संक्षेप में यह अष्टविध दर्शनाचार है। इसके विपरीत दर्शन के आठ अतिचार इस प्रकार होते हैं 1. जिस योग-वहन में आहार आदि से सम्बन्धित अत्यन्त नियंत्रण होता है, वह आगाढ़ योग कहलाता है। आगाढ़ योग में अवगाहिम (पक्वान्न) के अतिरिक्त शेष नौ विकृतियों का वर्जन किया जाता है लेकिन भगवती के अध्ययन काल में अवगाहिम कल्प्य हैं। महाकल्पश्रुत में एक मोदक विकृति कल्प्य है। आगाढ़योग जघन्य तीन साल और उत्कृष्ट छ: मास का होता हैं। १.निभा 1594 चूपृ. 238 ; आगाढतरा जम्मि जोगे जंतणा सो आगाढो यथा भगवतीत्यादि।आगाढे ओगाहिमवज्जा णवविगतीओ वज्जिजंति, दसमाए भयणा।सव्वा ओगाहिमविगती पण्णत्तीए कप्पति। महाकप्पसुत्ते एक्का परं मोदगविगती कप्पति। - २.व्यभा 2121 / 2. जिस ग्रंथ के अध्ययन काल में विकृति आदि से सम्बन्धित कड़ा नियंत्रण नहीं होता, वह अनागाढ़ योग होता है। जैसे उत्तराध्ययन, नंदी आदि सूत्रों के अध्ययन-काल में विकृति-वर्जन आदि का कठोर नियंत्रण नहीं होता। अनागाढ़ योग में गुरु की आज्ञा हो तो दसों विकृतियां ग्राह्य होती हैं, अन्यथा एक भी ग्राह्य नहीं होती। १.निभा 1594 चू पृ. २३९;अणागाढे पुण दसविगतीतो भतिताओ।जओ गुरुअणुण्णातो कप्पंति, अणुण्णाए विणा ण कम्पति,एस भयणा।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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