________________ 378 जीतकल्प सभाष्य 1039. संशय करना शंका' है। अन्यान्य दर्शनों को ग्रहण करने की इच्छा करना कांक्षा है। धर्म करने पर भी मेरी सद्गति होगी या नहीं, यह सोचना विचिकित्सा है। 1040. अथवा विदुगुच्छा–साधु की कुत्सा-निंदा करना विचिकित्सा है। विदु का अर्थ साधु जानना चाहिए। ये साधु नित्य मंडलि, मोक-प्रस्रवण और जल्ल-मैल आदि धारण करते हैं, इस प्रकार जुगुप्सा करना विचिकित्सा है। 1041. परतीर्थिकों की पूजा और अनेकविध ऋद्धि को देखकर अथवा दूसरे से सुनकर जो मति-मोह होता है, वह मूढ़ता है। 1042. उपबृंहण' दो प्रकार का होता है-प्रशस्त और अप्रशस्त / साधु के सद्गुणों को बढ़ावा देना प्रशस्त तथा चरक आदि के गुणों को बढ़ावा देना अप्रशस्त उपबृंहण है। 1. भव्यत्व और अभव्यत्व के संदर्भ में देश शंका को स्पष्ट करते हुए चूर्णिकार कहते हैं कि जीवत्व तुल्य होने पर भी कोई जीव भव्य और कोई अभव्य कैसे है? इसी प्रकार अन्य विषयों पर भी ऐसा सोचना देश शंका है। निशीथ चर्णिकार ने एक अन्य उदाहरण से इसे व्याख्यायित किया है। व्यक्ति यह सोचे कि एक परमाणु एक आकाश प्रदेश पर स्थित है, अन्य परमाणु भी उसी आकाश-प्रदेश पर अवगाहित होता है, यह कैसे संभव है क्योंकि एक परमाणु से दूसरा परमाणु सूक्ष्मतर नहीं होता और न ही आत्मा की भांति दूसरे को अवगाह देता है, यह देशशंका है। सारा द्वादशांग प्राकृतभाषा में निबद्ध है, यह कुशल (सर्वज्ञ) पुरुषों द्वारा रचित नहीं है। भगवद्वाणी के बारे में ऐसा सोचना सर्वशंका है। 1. जीचू पृ. 13 / 2. निचू 1 पृ. 15 / 2. मंडली में एक साथ भोजन करने से सबकी लार से भोजन अशुचि हो जाता है। मोक-प्रस्रवण करने के बाद साधु पानी का प्रयोग नहीं करते, उन्हीं हाथों से खाने के पात्र छू लेते हैं, इस प्रकार जुगुप्सा करना भी विचिकित्सा है। निशीथ भाष्य में जल्ल-मैल के स्थान पर असिणाण-अस्नान शब्द का प्रयोग हुआ है। इसका तात्पर्य भी यही है कि साधु के शरीर से स्वेद और मल झरता रहता है। 1. निचू 1 पृ.१६। 3. जिनदास गणी के अनुसार अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, कंबल आदि जो जिसके प्रायोग्य है, वह उसको देना पूजा है। 1. दशजिचू प. पूय त्ति असण-पाण-खातिम सातिम-वत्थ-कंबलाती जस्स वाजं पाउग्गं तेण से पडिलाभणं पूया। 4. ऋद्धि का अर्थ है-ऐश्वर्य / वह विद्या और तप दो प्रकार का होता है। यहां ऋद्धि का सम्बन्ध साधु से है अतः विद्या और तप-ये दो भेद किए गए हैं। वैक्रिय लब्धि, आकाशगमन तथा विभंगज्ञान आदि ऐश्वर्य को देखकर विमूढ़ होना अमूढदृष्टि है। चरक आदि परतीर्थिकों से सम्बन्ध होने से यहां विभंगज्ञान का उल्लेख हुआ है। १.निभा 26 चू१ पृ.१७; इड्डित्ति इस्सरियं, तं पुण विज्जामतं तवोमतं वा, विउव्वणागासगमणविभंगणाणादिऐश्वर्य। 5. निशीथ चूर्णि में उपबृंहण के चार पर्याय बताए हैं -उपबंह, प्रशंसा, श्रद्धाजनन, श्लाघा / ' १.निचू 1 पृ.१८ ; उववूहत्ति वा पसंस त्ति वा सद्धाजणणं ति वा सलाघणं ति वा एगट्ठा।