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________________ अनुवाद-जी-१ 273 44, 45. अंतगत और मध्यगत अवधिज्ञान में क्या भेद है? पुरतः अंतगत अवधिज्ञान पुरोवर्ती संख्येय या असंख्येय योजन प्रमाण क्षेत्र को जानता-देखता है, जबकि मध्यगत अवधिज्ञान चारों ओर संख्येयअसंख्येय योजन तक के पदार्थों को जानता-देखता है। इसी प्रकार पृष्ठतः और पार्श्वगत को जानना चाहिए। 46. इस प्रकार आनुगामिक अवधिज्ञान का मैंने संक्षेप में वर्णन कर दिया, अब अनानुगामिक' अवधिज्ञान को कहूंगा। 47-49. जैसे कोई पुरुष एक विशाल ज्योतिकुंड को बनाकर उसी के आसपास चारों ओर चक्कर लगाता हुआ उस ज्योति-स्थान को देखता है, अन्यत्र जाने पर वह उसे नहीं देखता, वैसे ही अनानुगामिक अवधिज्ञान जिस क्षेत्र में उत्पन्न होता है, उसी क्षेत्र से सम्बद्ध संख्येय अथवा असंख्येय योजन प्रमाण क्षेत्र को जानता देखता है, अन्यत्र जाने पर वह उसे नहीं देखता। यह मैंने संक्षेप में अनानुगामिक' अवधिज्ञान का वर्णन किया है। 50. जो प्रशस्त अध्यवसाय तथा शुद्ध चारित्र में वर्तमान है, आगे से आगे विशुद्ध्यमान चारित्र वाला है, 1. जी अवधिज्ञान जहां उत्पन्न होता है, उस क्षेत्र से या भव से अन्यत्र जाने पर साथ नहीं जाता, वह अनानुगामिक अवधिज्ञान कहलाता है। इसकी तुलना ग्रंथकार ने स्थिर ज्योतिकुण्ड से की है। व्यक्ति उस ज्योतिकुण्ड के चारों : ओर की क्षेत्रगत वस्तुओं को जान लेता है किन्तु अन्यत्र जाने पर प्रकाश साथ न चलने से वह जान-देख नहीं पाता। नंदीचूर्णि में ज्योतिकुंड या ज्योतिस्थान के स्थान पर सांकल से बंधे दीपक का उदाहरण दिया है। आकारभेद और शब्दभेद होने पर भी दोनों का भावार्थ एक ही है। चूर्णिकार के अनुसार अनानुगामिक अवधिज्ञान क्षेत्र सापेक्ष क्षयोपशम से उत्पन्न होता है। आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थभाष्य में प्रश्नादेशिक पुरुष के उदाहरण से अनानुगामिक अवधिज्ञान को स्पष्ट किया है। जैसे-प्रश्नादेशिक पुरुष (प्रश्नकुंडली के आधार पर उत्तर देने वाला) अपने नियत स्थान में प्रश्न का उत्तर सम्यक रूप से दे सकता है, वैसे ही क्षेत्र प्रतिबद्ध अवधिज्ञान अपने क्षेत्र में ही साक्षात् जान सकता है। - 1. नंदीचू पृ.१७ ; संकलापडिबद्धट्टितप्पदीवो व्व, तस्स य खेत्तावेक्खखयोवसमलाभत्तणतो अणाणुगामित्तं। २.तस्वोभा 1/23 ; तत्रानानुगामिकं यत्र क्षेत्रे स्थितस्योत्पन्नं ततः प्रच्युतस्य प्रतिपतति प्रश्नादेशपुरुषज्ञानवत्। 2. नारक और देवों का अवधिज्ञान अनानुगामिक होता है। मनुष्य और तिर्यञ्चों का अवधिज्ञान आनुगामिक, अनानुगामिक और मिश्र अर्थात् एक देश में अनुगमनशील–तीनों प्रकार का होता है।' १.आवनि ५४;अणुगामिओ उ ओधी, नेरइयाणं तधेव देवाणं।अणुगामि अणणुगामी, मीसो य मणुस्सतेरिच्छेि। 3. नंदी चूर्णिकार के अनुसार तैजस, पद्म और शुक्ल-इन तीन प्रशस्त लेश्याओं से अनुरंजित चित्त वाला प्रशस्त अध्यवसाय वाला कहलाता है। 1. नंदीचूपृ.१८; पसत्थज्झवसाणट्ठाणा तेआदिपसत्थलेसाणुगता भवंति, पसत्थदव्वलेसाहि अणुरंजितं चित्तं पसत्थ ज्झवसाणो भण्णति।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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