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________________ 272 जीतकल्प सभाष्य 39. अंतगत अवधिज्ञान भी तीन प्रकार का होता है-१. पुरतः 2. पृष्ठतः 3. पार्श्वतः। पुरतः अंतगत अवधिज्ञान को मैं संक्षेप में कहूंगा। 40. जैसे कोई मनुष्य उल्का, दीपिका, चुडुलि-मशाल, दीप या मणि आदि को आगे प्रेरित करके चलता है, वह पुरतः अंतगत अवधिज्ञान है। 41. इसी प्रकार कोई पुरुष उल्का आदि को पृष्ठभाग में रखता हुआ चलता है, वह पृष्ठतः अंतगत अवधिज्ञान है। 42. जो कोई पुरुष मशाल यावत् मणि आदि को पार्श्व भाग में करके दायीं अथवा बायीं ओर रखता हुआ चलता है, वह पार्श्वत: अंतगत अवधिज्ञान है। इस प्रकार अंतगत के ये तीन भेद कहे गए हैं। 43. मध्यगत अवधिज्ञान क्या होता है? जैसे कोई पुरुष मशाल आदि को सिर पर रखकर चलता है, वह मध्यगत अवधिज्ञान है। 1. सामने के संख्यात और असंख्यात योजन क्षेत्र में स्थित पौद्गलिक पदार्थों को इंद्रिय और मन की सहायता के बिना जानने वाला ज्ञान पुरतः अंतगत अवधिज्ञान है। इस अवधिज्ञान में शरीर के सामने के वक्षस्थल आदि अवयव अवधिज्ञान के करण बनते हैं। १.नंदीमटीप 84; तत्र पुरतः अवधिज्ञानिनः स्वव्यपेक्षया अग्रभागेऽन्तगतं पुरतोऽन्तगतम्। 2. पृष्ठतः अर्थात् पीछे के संख्यात-असंख्यात योजन क्षेत्र में विद्यमान पदार्थों का अतीन्द्रियज्ञान पृष्ठतः अन्तगत अवधिज्ञान कहलाता है। आवश्यक चूर्णि में पृष्ठतः अवधिज्ञान के लिए स्पर्शन इंद्रिय का उदाहरण दिया गया है। १.आवचू 1 पृ.५६ ; जत्थ जत्थ सो ओहिणाणी गच्छति, तत्थ तत्थ सोइंदिएणमिव पासतो अवत्थिता रूवावबद्धा अत्था ओहिणा जाणति पासति य। 3. ग्रथकार ने आनुगामिक अवधि की तुलना दीपिका, चुडुलिका आदि प्रकाशक द्रव्यों से की है। ये प्रकाश के ऐसे साधन हैं, जिन्हें व्यक्ति जहां चाहे, वहां ले जा सकता है। इनसे आगे-पीछे, दाएं-बाएं किसी भी दिशा को प्रकाशित किया जा सकता है। ये जिस दिशा को प्रकाशित करते हैं, आंखें उसी दिशा के पदार्थों को जानती हैं, उसी प्रकार इस अवधिज्ञान में ज्ञानी के शरीर का जो भाग प्रभावित होता है, उसी दिशा से अवधिज्ञान की रश्मियां बाहर निकलती हैं और ज्ञेय पदार्थ को प्रकाशित करके अतीन्द्रिय ज्ञान करवाती हैं। 4. दाएं और बाएं पार्श्व की ओर संख्यात-असंख्यात योजन क्षेत्रवर्ती पदार्थों को साक्षात् करने वाला अवधिज्ञान पार्श्वतः अन्तगत अवधिज्ञान कहलाता है। इससे कांख आदि पार्श्वस्थ चैतन्यकेन्द्र के जागृत होने पर पार्श्ववर्ती ज्ञेयों का ज्ञान होता है। ग्रंथकार ने पुरतः अंतगत के लिए पणुल्लयंत, मार्गत: अंतगत के लिए अणुकड्माण तथा पार्श्वत: अंतगत के लिए परिकड्डमाण शब्द का प्रयोग किया है। 5. नारक, देव और तीर्थंकरों के नियमत: अबाह्य अवधिज्ञान होता है। इनका भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान मध्यगत होता है। मध्यगत अवधिज्ञान में ही सर्वतः देखने की शक्ति होती है। शेष मनुष्य और तिर्यञ्च अंतगत अवधिज्ञान वाले होते हैं, वे एक देश से देखते हैं। चूर्णिकार ने मध्यगत अवधिज्ञान की स्पर्शन इंद्रिय से तुलना की है। 1. नंदी 22/2, आवनि 64 / 2. आवचू 1 पृ५६, 57; जहा फरिसिदिएणं, समंतओ फरिसिए जीवो अत्थे उवलभति, एवं सो वि, ओहिणाणी जत्थ जत्थ गच्छति॥ तत्थ तत्थ समंतओ रूवावबद्धे अत्थे ओहिणा जाणति पासति य, से तं मझगयं ओहिणाणं॥
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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