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________________ अनुवाद-जी-१ 271 37, 38. अवधिज्ञान संक्षेप में छह प्रकार का जानना चाहिए'–१. आनुगामिक' 2. अनानुगामिक 3. वर्धमान 4. हीयमान 5. प्रतिपाती 6. अप्रतिपाती। आनुगामिक अवधिज्ञान दो प्रकार का होता हैअंतगत और मध्यगत / 1. षट्खण्डागम में अवधिज्ञान के तेरह भेद उल्लिखित हैं-१. देशावधि 2. परमावधि 3. सर्वावधि 4. हीयमान, 5. वर्धमान 6. अवस्थित 7. अनवस्थित 8. अनुगामी 9. अननुगामी 10. सप्रतिपाति 11. अप्रतिपाति 12. एकक्षेत्र 13. अनेक क्षेत्र / तत्त्वार्थ वार्तिक में प्रकारान्तर से अवधिज्ञान के तीन भेद मिलते हैं -1. देशावधि 2. परमावधि 3. सर्वावधि। आचार्य महाप्रज्ञ ने नंदी सूत्र में इसका विस्तार से वर्णन किया है। 1. षध पु. 13,5/5, 56 / / 2. तवा 1/22 पृ.८१ 3. नंदी पृ. 55, 56 / 2. आनुगामिक अवधि का अर्थ है-जिस क्षेत्र में यह ज्ञान उत्पन्न होता है, वह उस क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर भी अनुगमन करता है। तत्त्वार्थ भाष्य में इसे सूर्य के प्रकाश एवं पाक के समय घट जनित रक्तता से समझाया गया है। जैसे सूर्य का प्रकाश तथा घट की रक्तता सर्वत्र व्याप्त होती है, वैसे ही इस अवधिज्ञान में आत्मप्रदेशों की विशेष विशुद्धि होती है। नंदी चूर्णि के अनुसार आंख की भांति जो साथ-साथ अनुगमन करता है, वह आनुगामिक अवधिज्ञान है। धवला में आनुगामिक अवधि के तीन भेद निर्दिष्ट हैं१. क्षेत्रानुगामी-एक क्षेत्र में उत्पन्न होकर अन्य क्षेत्र में भी साथ जाने वाला। 2. भवानुगामी-एक भव में उत्पन्न होकर अन्य भव में भी साथ जाने वाला। 3. क्षेत्रभवानुगामी-क्षेत्र और भव-दोनों में अनुगमन करने वाला, यह संयोग जनित विकल्प है। इस सम्बन्ध में विस्तार हेतु देखें नंदी पृ.५६-५८। / 1. तस्वोभा 1/23 आनुगामिकं यत्र क्वचिदुत्पन्न क्षेत्रान्तरगतस्यापिन प्रतिपतति भास्करप्रकाशवत्, घटरक्तभाववच्च। २.नंदीचू पृ.१५;अणुगमणसीलो अणुगामितो तदावरणखयोवसमाऽऽतप्पदेसविसुद्धगमणत्तातो लोयणं व॥ 3. षट्ध पु. 13, 5/5/56, पृ. 294 / 3. नंदी के टीकाकार ने अंतगत अवधिज्ञान की व्याख्या तीन प्रकार से की है-१. जो पर्यन्तवर्ती आत्मप्रदेशों से साक्षात् जानता है। 2. जो औदारिक शरीर के अंत-किसी एक भाग से जानता है। 3. सब आत्मप्रदेशों का क्षयोपशम होने पर भी जो ज्ञान औदारिक शरीर के एक भाग से एक दिशागत वस्तुओं को जानता है, वह अंतगत अबधिज्ञान है। 1. नंदीमटी प.८३। 4. अवधिज्ञानावरण के विशिष्ट क्षयोपशम से जब सारे स्पर्धक विशुद्ध हो जाते हैं, सम्पूर्ण स्थूलशरीर जब ज्ञान का करण बन जाता है, तब व्यक्ति को दाएं-बाएं और आगे-पीछे सब ओर से ज्ञान होने लगता है। वह सभी दिशाओं में संख्यात-असंख्यात योजन क्षेत्र एवं तत्रस्थ ज्ञेय पदार्थों को जान लेता है। नंदी चूर्णिकार के अनुसार मध्यगत अवधि के तीन अर्थ हैं-१. जिसके मध्यवर्ती आत्मप्रदेश अवधिज्ञान के स्पर्धक बनते हैं, वह सब दिशाओं को जानता है। २.जिस अवधिज्ञान का क्षयोपशम सारे आत्मप्रदेशों में होता है तथा करण औदारिक शरीर के मध्यवर्ती अवयव बनते हैं। औदारिक शरीर के मध्य में स्थित होने वाला ज्ञान मध्यगत अवधि है। 3. मध्यगत अवधि के द्वारा पुरोवर्ती, पश्चाद्वर्ती और उभयपार्श्ववर्ती क्षेत्र के ज्ञेय जाने जाते हैं। अवधिज्ञानी अपने ज्ञेय क्षेत्र के मध्य में रहता है, पर्यन्तभाग में नहीं अत: यह मध्यगत अवधिज्ञान है। टीकाकार ने भी इसकी तीन रूपों में व्याख्या की है। १.नंदीमटी प.८३,८४, द्र. श्रीभिक्षु आगम भा.१ पृ.५०।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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