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________________ 270 जीतकल्प सभाष्य से भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान होता है। 33. उत्पन्न होता हुआ भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान जितने विषय को जानता है, भव-पर्यन्त उतना ही जानता है। न उसमें वृद्धि होती है और न ही हानि। 34. गुणप्रत्ययिक अवधिज्ञान संख्यात आयुष्य वाले गर्भज तिर्यञ्च और मनुष्यों के तदावरणीय (अवधि ज्ञानावरणीय) कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है। 35. अवधि' का अर्थ है-मर्यादा। यह परिमित द्रव्यों को जानता है इसलिए इसका नाम अवधि है। यह केवल मूर्त द्रव्यों को जानता है, अरूपी द्रव्य इसका विषय नहीं है। 36. अत्यन्त अनुपलब्ध द्रव्य अवधिज्ञान के प्रत्यक्ष होते हैं। अवधिज्ञान में परिणत द्रव्य समस्त पर्यायों को प्रकट करने में समर्थ नहीं होते। १.जिसके द्वारा मर्यादापूर्वक ज्ञान होता है, वह अवधि है। दिगम्बर आचार्य अकलंक ने अवधि शब्द को अव उपसर्ग पूर्वक धा धातु से निष्पन्न माना है। उनके अनुसार अव उपसर्ग अधोवाचक है। जो ज्ञान अधोवर्ती वस्तुओं को जानता है, वह अवधिज्ञान है। विशेषावश्यक भाष्य में अवधि का अर्थ अवधान किया है। जो अवधान से जानता है, वह अवधिज्ञान है। तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी के रचयिता सिद्धसेनगणी ने अव को विषयबहुलता का द्योतक माना है। उनके अनुसार अवधिज्ञान केवल नीचे ही देखे, यह युक्तिसंगत नहीं है, वह ऊर्ध्व और तिर्यक् दिशा में स्थित मूर्त पदार्थों को भी साक्षात् जानता है। धवला के टीकाकार वीरसेन के अनुसार जो अवाङ् -- पुद्गल को धारण करता है, वह अवधिज्ञान है। 1. तवा 1/9/3 पृ. 44 ; अवशब्दोऽध:पर्यायवचनः, यथा अधः क्षेपणम् अवक्षेपणमिति / अधोगतभूयोद्रव्य विषयो ह्यवधिः / २.विभा८२; तेणावहीयए तम्मि वावहाणं तओऽवही सोय मज्जाया।जंतीए दव्वाई,परोप्पर मुणइ तओऽवहि त्ति॥ 3. त 1/9 भाटी पृ. 70 / 4. षट्ध पु. 13, 5/5/21 पृ. 210, 211 / २.बृहत्कल्पभाष्य में अवधिज्ञान के प्रसंग में अत्यन्त अनुपलब्ध पदार्थों के उदाहरण दिए हैं-कपड़े बदलने से, गुटिका-प्रयोग से, स्वर या वर्ण परिवर्तन से, विपरीत वेश धारण करने से, विद्यासिद्ध, अञ्जनसिद्ध अथवा देवता के द्वारा छिपाए हुए अत्यन्त अनुपलब्ध पदार्थ अवधिज्ञान के प्रत्यक्ष होते हैं। इसके अतिरिक्त पृथ्वी, वृक्ष, पहाड में अथवा शरीर के अंदर जो द्रव्य हैं, वे तथा इंद्रिय और मन से सम्बन्धित सुख-दुःख अवधिज्ञान के प्रत्यक्ष होते १.बृभा 31,32; विवरीयवेसधारी, विजंजणसिद्धदेवताए वा। छाइयसेवियसेवी, बीयादीओ वि पच्चक्खा॥ पुढवीइ तरुगिरीया, सरीरादिगया यजे भवे दव्वा / परमाणू सुहदुक्खादओ य ओहिस्स पच्चक्खा / / 3. अवधिज्ञानी जघन्यतः प्रत्येक द्रव्य के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श रूप चार पर्यायों को जानता है, मध्यम अवधिज्ञानी संख्येय पर्यायों को तथा उत्कृष्ट अवधिज्ञानी असंख्येय पर्यायों को जानता है। अवधिज्ञानी द्रव्य की अनंत पर्यायों को कभी नहीं जानता। १.(क) आवनि 62; दव्वाओ असंखेज्जे, संखेजे यावि पज्जवे लभति।दो पज्जवे दुगुणिते,लभति य एगाउ दव्याओ। (ख) विभा 761, 762; एगंदव्वं पेच्छं, खंधमणुं वा स पज्जवे तस्स। उक्कोसमसंखिज्जे, संखिज्जे पेच्छए कोइ॥ दो पज्जवे दुगुणिए, सव्वजहण्णेण पेच्छए ते यावण्णाईया चउरो, नाणंते पेच्छड़ कयाइ।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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