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________________ अनुवाद-जी-१ 269 को जानता है इसलिए अवधिज्ञान की प्रकृतियां संख्यातीत कही गई हैं। काल की दृष्टि से अवधिज्ञान जघन्यतः आवलिका के असंख्य भाग से प्रारम्भ होकर समय की उत्तरोत्तर वृद्धि होने से उत्कृष्टतः असंख्य उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी प्रमाण काल को जानता है। 30, 31. इस प्रकार अवधिज्ञान की सर्व प्रकृतियां असंख्य होती हैं। 'संख्यातीत' शब्द के ग्रहण से केवल असंख्य का ही ग्रहण नहीं हुआ है, पुद्गलास्तिकाय की पर्यायों की अपेक्षा से अवधिज्ञान की प्रकृतियां अनंत भी होती हैं। संख्यातीत शब्द से 'असंख्य' और 'अनंत' दोनों का ग्रहण हो जाता है। 32. अवधिज्ञान दो प्रकार का होता है-भवप्रत्ययिक और क्षायोपशमिक। देवता और नारक के नियम 1. अवधिज्ञान के असंख्य स्थान होते हैं, इस संदर्भ में आचार्य महाप्रज्ञ का टिप्पण पठनीय है-'अवधिज्ञान विचित्र प्रकार का होता है। कोई भावितात्मा अनगार वैक्रिय समुद्घात से समवहत वैक्रिय विमान में बैठकर जाते हुए देव को देखता है, विमान को नहीं देखता। कोई अनगार विमान को देखता है, देव को नहीं देखता। कोई अनगार देव को भी देखता है और विमान को भी देखता है। कोई अनगार न देव को देखता है और न विमान को देखता है। कोई भावितात्मा अनगार वृक्ष के अन्तर्वर्ती भाग को देखता है, बहिर्वर्ती भाग को नहीं देखता। कोई अनगार वृक्ष के बहिर्वर्ती भाग को देखता है, अन्तर्वर्ती भाग को नहीं देखता। कोई अनगार वृक्ष के मूल को देखता है, कंद को नहीं देखता। कोई अनगार वृक्ष के कंद को देखता है, मूल को नहीं देखता। इसी प्रकार बीजपर्यंत अनेक विकल्प हैं।" १.भभा. 2,3/154-163 का टिप्पण पृ.७३,७४। 2.. आचार्य हरिभद्र सूरि के अनुसार क्षेत्र और काल की अपेक्षा से अवधिज्ञान की प्रकृतियां असंख्य तथा द्रव्य और भाव रूप ज्ञेय की अपेक्षा से अवधिज्ञान की प्रकृतियां अनंत हैं।' -:आबहाटी 1 पृ.१८द्रव्यभावाख्यज्ञेयापेक्षया चानन्ता इति। 3. जिस अवधिज्ञान के क्षयोपशम में भव-जन्म कारण बनता है, वह भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान है, जैसे पक्षियों में उड़ने की क्षमता जन्मजात होती है। इस प्रसंग में विशेषावश्यक भाष्य में एक प्रश्न उपस्थित किया है कि अवधिज्ञान क्षायोपशमिक भाव है, जबकि देवगति और नरकगति औदयिक भाव, फिर वह ज्ञान भवप्रत्ययिक कैसे हो सकता है? आचार्य समाधान देते हुए कहते हैं कि देव और नारकों को अवधिज्ञान क्षयोपशम से ही मिलता है लेकिन वह उस भव में अवश्य होता है इसलिए इसे भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान कहा गया है। 1. आवहाटी 1 पृ. 18 / २.विभा 573, 574 - ओही खओवसमिए, भावे भणिओ भवो तहोदईए। तो किह भवपच्चइओ, वोत्तुं जुत्तोऽवही दोण्हं॥ सो विहु खओवसमओ, किंतु स एव खओवसमलाभो। तम्मि सइ होयवस्सं,भण्णइ भवपच्चओ तो सो।। 4. नंदी चूर्णिकार ने क्षयोपशम जन्य अवधिज्ञान को दो भागों में विभक्त किया है-गुण के बिना होने वाला क्षयोपशम, गुण की प्रतिपत्ति से होने वाला क्षयोपशम। बिना गुण के होने वाले अवधिज्ञान को नंदी चूर्णिकार ने बादल की उपमा से समझाया है। जैसे बादलों से आच्छन्न आकाश में कोई छिद्र रह जाता है तो उसमें से सूर्य की किरणें निकलकर द्रव्य को प्रकाशित करती हैं, वैसे ही अवधि ज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर बिना गुण के अवधिज्ञान की प्राप्ति होती है। क्षयोपशम जन्य अवधि का दूसरा हेतु है-गुण की प्रतिपत्ति। यहां गुण का अर्थ है-चारित्र / चारित्र गुण की विशुद्धि होने से अवधिज्ञान की उत्पत्ति के योग्य क्षयोपशम होता है। यह गुण-प्रतिपत्ति से होने वाला क्षयोपशम है।' 1. नंदीचू पृ. 15 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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