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________________ 268 जीतकल्प सभाष्य 17. लिंग, चिह्न, निमित्त और कारण -ये सब एकार्थक शब्द हैं। इंद्रियों के द्वारा धूम को देखकर जीव . अग्नि को जानता है। 18. इस प्रकार इंद्रियों के द्वारा जो जाना जाता है, वह लैङ्गिक ज्ञान' है इसलिए यह सिद्ध है कि जीव जानता है, श्रोत्र आदि पांच इंद्रियां नहीं जानतीं। 19. यह सारा वर्णन प्रसंग के अनुसार किया गया है क्योंकि कहीं-कहीं कोई (दार्शनिक) इंद्रियों को प्रत्यक्ष मानते हैं। इंद्रियों के द्वारा जानकर इस प्रकार व्यवहार करना चाहिए। 20-22. श्रोत्रेन्द्रिय से किसी अन्य की प्रतिसेवना को सुनकर, चक्षुरिन्द्रिय से किसी को अनाचार का सेवन करते हुए देखकर, धूप आदि सुगंधित द्रव्यों में पिपीलिका आदि की हिंसा देखकर, किसी के द्वारा सचित्त कंद आदि फल खाने से गंध और रस का अनुभव होने पर, अंधकार में स्पर्श से अभ्यङ्गन आदि को जानकर-इन सब बातों को इंद्रिय-प्रत्यक्ष से जानकर व्यवहार किया जाता है। 23. नोइंद्रिय प्रत्यक्ष व्यवहार संक्षेप में तीन प्रकार का है-१. अवधि प्रत्यक्ष 2. मनःपर्यव प्रत्यक्ष 3. केवल प्रत्यक्ष। 24. व्यवहार को एक बार रहने दें। अवधिज्ञान आदि तीनों के लक्षण संक्षेप में अशून्यार्थ के लिए कहूंगा। 25. नोइंद्रिय प्रत्यक्ष का प्रथम भेद अवधिज्ञान है। उसके स्वामित्व, क्रम और विशुद्धि को मैं अनेक प्रकार से कहूंगा। अवधिज्ञान के कितने भेद हैं? 26. अवधिज्ञान की सर्व प्रकृतियां संख्यातीत' हैं। इनमें कुछ भवप्रत्ययिक तथा कुछ क्षायोपशमिक हैं। 27-29. अवधिज्ञान की प्रकृतियां संख्यातीत क्यों कही गई हैं? क्षेत्रप्रमाण की दृष्टि से अवधिज्ञान जघन्य रूप से अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर प्रदेशवृद्धि के कारण उत्कृष्टतः लोकप्रमाण असंख्यात खंडों 1. न्याय वैशेषिक दर्शन में ज्ञान को आत्मा का लिंग माना गया है। १.न्या.-१/१/१०; इच्छा-द्वेष-प्रयत्न-सख-दःख-ज्ञानान्यात्मनो लिंगम्। 2. ज्ञेयभेद से ज्ञानभेद हो जाता है अत: अवधिज्ञान की संख्यातीत प्रकृतियां कही गई हैं। 1. आवनि 23 हाटी 1 पृ. 18; ज्ञेयभेदाच्च ज्ञानभेद इत्यतः संख्यातीताः तत्प्रकृतयः इति। 3. व्रत, सम्यक्त्व आदि के कारण क्षयोपशमजन्य आत्मविशुद्धि होने से गुणों के कारण जो ज्ञान प्रकट होता है, वह क्षायोपशमिक अवधिज्ञान है। इसे गुणप्रत्ययिक भी कहा जाता है। आचार्य वीरसेन ने इसके लिए गुणहेतुक शब्द का प्रयोग भी किया है। क्षायोपशमिक ज्ञान गुण-प्रतिपत्ति के बिना भी होता है। जैसे लकड़ी में घुणाक्षरन्याय से स्वत: अक्षरों की रचना प्रकट हो जाती है, वैसे ही जन्म-जन्मान्तर में परिभ्रमण करते हुए अवधि ज्ञानावरण का क्षयोपशम होने से यथाप्रवृत्त अवधिज्ञान की प्राप्ति होती है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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