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________________ अनुवाद-जी-१ 267 से परे जो ज्ञान होता है, वह परोक्ष कहलाता है। 12. असु-अशूइत्-व्याप्तौ धातु से अक्ष शब्द बना है। अक्ष नियमतः जीव कहलाता है, जो ज्ञान से सभी भावों-पदार्थों में व्याप्त रहता है, वह अक्ष कहलाता है। 13. अशश् धातु भोजन के अर्थ में प्रयुक्त होती है। अक्ष के लिए सब द्रव्य भोग में आते हैं तथा जो पालन/ रक्षण करता है, वह अक्ष कहलाता है। 14. कुछ दार्शनिक (वैशेषिक आदि) इंद्रियों को अक्ष मानते हैं, उनके द्वारा उपलब्ध ज्ञान प्रत्यक्ष है लेकिन उनकी यह मान्यता युक्ति संगत नहीं है क्योंकि इंद्रियां विषय की अग्राहक हैं। 15. जीव रूप आदि विषयों का इंद्रियों के द्वारा ज्ञान प्राप्त करता है इसीलिए मृत जीव की इंद्रियां विषयज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकतीं। . 16. इसलिए यह सिद्ध है कि इंद्रियां विषय की अग्राहक हैं। जो इन्द्रियों के द्वारा जाना जाता है, वह लैंगिक ज्ञान है। 1. इंद्रिय और मन के द्वारा आत्मा को जो ज्ञान होता है, वह परोक्ष है। विशेषावश्यक भाष्य में इंद्रिय और मन से होने वाले ज्ञान की परोक्षता का हेतु प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि आत्मा अमूर्त और अपौद्गलिक है तथा द्रव्येन्द्रियां पौद्गलिक होने से आत्मा से भिन्न हैं अत: इंद्रिय और मन से होने वाला ज्ञान धूम से अग्निज्ञान की भांति परनिमित्त होने के कारण परोक्ष है। इसके अतिरिक्त इंद्रिय और मन से होने वाला ज्ञान संशय आदि दोषों से युक्त हो सकता है। इसका अन्य हेतु बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जैसे पूर्व उपलब्ध सम्बन्ध की स्मृति से उत्पन्न अनुमान ज्ञान परोक्ष होता है, वैसे ही इंद्रिय और मन से होने वाला मतिश्रुत ज्ञान भी परोक्ष है।' १.बृभापीटी पृ.१२ ; इंद्रियद्वारेण मनोद्वारेण वात्मनो ज्ञानमुपजायते तत् परोक्षम्। २.विभा 90%; अक्खस्स पोग्गलकया, जं दव्विंदियमणा परा तेणं। तेहिं तो जं नाणं, परोक्खमिह तमणुमाणं व॥ ३.विभा 93; इंदिय-मणोनिमित्तं, परोक्खमिह संसयादिभावाओ। तक्कारण पारोक्खं,जहेह साभासमणुमाणं॥ 4. विभा 94 ; होंति परोक्खाई मइ-सुयाई जीवस्स परनिमित्ताओ। पुव्वोवलद्धसंबंधसरणाओं वाणुमाणं व॥ ग्रंथकार ने इस गाथा में वैशेषिक आदि दर्शन का मत प्रस्तुत किया है। वैशेषिक लोग अक्ष का अर्थ इंद्रिय करते हैं। उससे जो ज्ञान की उपलब्धि होती है, वह प्रत्यक्ष होती है इसीलिए वे प्रत्यक्ष की 'चाक्षुषादिविज्ञानं प्रत्यक्षम्' परिभाषा करते हैं। गाथा के उत्तरार्ध में ग्रंथकार ने उनके मत का खंडन किया है। चक्षु आदि इंद्रियां घट की भांति पौद्गलिक और अचेतन होने के कारण रूप आदि विषय की अग्राहक होती हैं। इसी बात को स्पष्ट करते हुए बृहत्कल्पभाष्य में कहा गया है कि जैसे घर के गवाक्ष से पुरुष बाहर की वस्तु देखता है फिर गवाक्ष के न होने पर वह पुरुष उस वस्तु को याद रखता है। इसी प्रकार इंद्रियां न होने पर भी पुरुष उस विषय की स्मृति रखता है अत: इंद्रियों के द्वारा जो ज्ञान होता है, वह लैंगिक ज्ञान है, जैसे-धूम को देखकर अग्नि का ज्ञान / ' लैंगिक ज्ञान इन्द्रिय और मन से होने के कारण परोक्ष है। कुछ दार्शनिक इंद्रियों से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष मानते हैं लेकिन जैन आचार्यों ने इसे सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष की कोटि में रखा है। जीतकल्पभाष्य में इसे इंद्रिय प्रत्यक्ष के रूप में स्वीकार किया है। १.बृभा 27, 28 टी पृ.१२, 13, विभा 91,92 / 2. विभा 95 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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