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________________ 266 जीतकल्प सभाष्य दिया जाता है। संक्षेप, समास और ओघ-ये एकार्थक शब्द हैं। 7. शिष्य प्रश्न पूछता है कि जीत के अलावा क्या और भी व्यवहार हैं, जिसके कारण जीत व्यवहार का विशेष उल्लेख किया गया है? आचार्य कहते हैं कि आगम आदि चार व्यवहार और हैं, उनके बारे में सुनो। 8. दुर्गति रूप संसार का दलन करने वाले तीर्थंकरों ने पांच प्रकार के व्यवहारों का वर्णन किया है। वे इस प्रकार हैं-१. आगम 2. श्रुत 3. आज्ञा 4. धारणा 5. जीत। 9. धीर पुरुष द्वारा प्रज्ञप्त आगम व्यवहार को सुनो, वह दो प्रकार का जानना चाहिए -प्रत्यक्ष और परोक्ष। 10. प्रत्यक्ष आगम व्यवहार भी दो प्रकार का है-इंद्रियज और नोइंद्रियज। इंद्रिय प्रत्यक्ष भी पांच इंद्रिय-विषयों से सम्बन्धित जानना चाहिए। 11. जीव अक्ष कहलाता है। उसके प्रति या उसके द्वारा जो ज्ञान होता है, वह प्रत्यक्ष कहलाता है। अक्ष 1. जीतकल्प भाष्य में आगम व्यवहार के दो भेद प्राप्त होते हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष। जबकि नंदी में प्रत्यक्ष और परोक्ष-ये दो ज्ञान के भेद हैं। आचार्य कुंदकुंद ने भी ज्ञान के दो भेद किए हैं। आचार्य सिद्धसेन प्रत्यक्ष और परोक्ष को प्रमाण का भेद मानते हैं। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार उमास्वाति का यह नया प्रस्थान है कि उन्होंने प्रमाण के दो विभाग करके उनका सम्बन्ध ज्ञान पंचक के साथ स्थापित किया है। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार प्रत्यक्ष और परोक्ष-ये दो विभाग उत्तरकालीन हैं। प्राचीन साहित्य में ज्ञान के पांच भेद ही उपलब्ध होते हैं। वहां प्रत्यक्ष या परोक्ष जैसा कोई भेद उल्लिखित नहीं है। दर्शन युग में जब प्रमाण की चर्चा प्रबल हुई, तब जैन आचार्यों ने भी ज्ञान को प्रत्यक्ष और परोक्ष के साथ जोड़ दिया। परोक्ष शब्द का प्रयोग केवल जैन ज्ञान-मीमांसा में मिलता है। 1. नंदी 3 / 2. प्रव 1/58 / 3. न्यायावतार। 4. नंदी का टिप्पण पृ.५१,५२। 2. अतीन्द्रिय ज्ञान नोइंद्रिय प्रत्यक्ष है। यहां'नो' शब्द सर्वथा निषेधवाचक है। मन भी किसी अपेक्षा से इंद्रियरूप में स्वीकृत है इसलिए उसके माध्यम से होने वाला ज्ञान भी प्रत्यक्ष नहीं होता। 1. नंदीचू पृ. 15; णोइंदियपच्चक्खं ति इंदियातिरित्तं। २.नंदीमवृ प.७६; नोशब्दः सर्वनिषेधवाची,तेन मनसोऽपिकथञ्चिदिन्द्रियत्वाभ्युपगमात्तदाश्रितं ज्ञानं प्रत्यक्षंन भवतीति। 3. नंदीचूर्णि में इंद्रियप्रत्यक्ष ज्ञान होने की प्रक्रिया का वर्णन प्राप्त है। पुद्गलों से इंद्रिय-संस्थान निर्मित होता है, वह द्रव्येन्द्रिय है। सर्व आत्मप्रदेशों में श्रोत्र आदि इंद्रियों के आवरण का क्षयोपशम होने से शब्द आदि का ज्ञान कराने की क्षमता को भावेन्द्रिय कहते हैं। जो ज्ञान भावेन्द्रिय के प्रत्यक्ष है, वह इंद्रियप्रत्यक्ष है।' विशेषावश्यक भाष्य में इंद्रिय प्रत्यक्ष के स्थान पर सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष शब्द का प्रयोग हुआ है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने उपचार से इंद्रियप्रत्यक्ष को प्रत्यक्षज्ञान के अन्तर्गत समाविष्ट किया है। इसका हेत बताते हुए उन्होंने कहा है कि इस ज्ञान में धूम आदि अन्य लिंग या निमित्त की अपेक्षा नहीं रहती। 1. नंदीचू पृ. 14 / २.विभा 95; एगंतेण परोक्खं,लिंगियमोहाइयं, च पच्चक्खं। इंदियमणोभवं जं, तं संववहारपच्चक्खं॥ ३.विभा 471, इंदिय-मणोनिमित्तं, पि नाणुमाणाहि भिज्जए किंतु। नाविक्खइ लिंगंतरमिइ पच्चक्खोवयारो स्थ॥ 4. इंद्रियों की सहायता के बिना आत्मा स्वयं जिसके द्वारा ज्ञेय को जानती है, वह प्रत्यक्ष ज्ञान है।. 1. आवचू 1 पृ.७; जं सयं चेव जीवो इंदिएण विणा जाणति, तं पच्चक्खं भण्णति।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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