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________________ अनुवाद 1. प्रवचन' को प्रणाम करके मैं संक्षेप में प्रायश्चित्त-दान के बारे में कहूंगा। वह प्रायश्चित्त जीतव्यवहार के अन्तर्गत है तथा जीव की परम विशोधि' करने वाला है। 1. द्वादशांगी प्रवचन है / वह सामायिक से लेकर बिंदुसार पर्यन्त है अथवा संघ चार प्रकार का है, जहां ज्ञान प्रतिष्ठित रहता है। 2. स्वाभाविक रूप से प्रशस्त अथवा प्रधान वचन वाला अथवा जो ज्ञानादि का प्रवर्तन करता है, वह . प्रवचन कहलाता है। 3. जीव आदि पदार्थ जहां सम्पूर्ण रूप से उपदिष्ट होते हैं, वह उपदेश प्रवचन है। उसको नमस्कार करके (मैं प्रायश्चित्त-विधि कहूंगा।) 4. मैं आगे विस्तार से दस प्रकार के प्रायश्चित्त का वर्णन करूंगा। प्रायश्चित्त किसे कहते हैं? 5. जिससे पाप का छेदन होता है, वह प्रायश्चित्त कहलाता है अथवा जिससे चित्त का शोधन होता है, वह प्रायश्चित्त है। : 6. पणग (पांच दिन-रात) आदि प्रायश्चित्त में तप रूप निर्विकृतिक (निर्विगय) आदि का प्रायश्चित्त 1. यहां संघ' एवं द्वादशांगी श्रुत' के लिए प्रवचन शब्द का प्रयोग हुआ है। श्रुतोपयोग कभी निराश्रय नहीं होता, वह हमेशा संघ के आश्रय से होता है अत: संघ के लिए प्रवचन शब्द का प्रयोग हुआ है। पंचवस्तु में गण, समुदाय, संघ, प्रवचन और तीर्थ को एकार्थक कहा है। १.जीचूवि. पृ. 32; संघ एव प्रवचनशब्द वाच्यः यतः प्रवचनं श्रुतमुच्यते। . . . 2. उचू प.१; प्रवचनं द्वादशांगं, तदुपयोगानन्यत्वाद् वा संघः। 3. पंव 1135; गण-समुदाओ संघो, पवयण तित्थं ति होंति एगट्ठा। 2. चूर्णिकार 'विसोहणं परमं' की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि ब्राह्मण आदि भी जीवघात होने पर सामान्य रूप से प्रायश्चित्त देते हैं। वे एकेन्द्रिय तथा त्रसजीवों के संघट्टन, परितापन, अपद्रावण आदि के बारे में नहीं जानते लेकिन निर्ग्रन्थ-प्रवचन में इसका सूक्ष्म विवेचन है अतः ग्रंथकार ने सलक्ष्य 'विसोहणं परमं' शब्द का प्रयोग किया है। १.जीचू पृ. 2 / 3. आवश्यक चूर्णि के अनुसार असत्य आचरण का अनुस्मरण करना प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित्त करने का प्रयोजन है-अपराध से मलिन आत्मा की विशोधि तथा शल्य के उद्धरण हेतु प्रयत्न। उत्तराध्ययन के अनुसार सम्यक् प्रायश्चित्त करने वाला निरतिचार हो जाता है। वह मार्ग (सम्यक्त्व), मार्गफल (ज्ञान) को निर्मल करता है तथा आचार (चारित्र) और आचारफल (मुक्ति) की आराधना करता है। छेदपिण्ड ग्रंथ में छेद, मलहरण, पापनाशन, शोधि, पुण्य, पवित्र और पावन-ये सात प्रायश्चित्त के एकार्थक हैं। * १.आव 2 पृ. २५१चिती-संज्ञाने प्रायशः वितथमाचरितमर्थमनुस्सरतीति वा प्रायश्चित्तं। 2. उ 29/17 / 3. छेदपिण्ड 3 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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