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________________ 274 जीतकल्प सभाष्य उसका अवधिज्ञान सब ओर से बढ़ता जाता है। (यह वर्धमान अवधिज्ञान है।)। 51. वर्धमान परिणामों से होने वाले जघन्य से लेकर उत्कृष्ट अवधिज्ञान को मैं इन गाथाओं में कहूंगा। 52. तीन समय के आहारक सूक्ष्म पनक जीव (वनस्पति विशेष) के शरीर की जितनी जघन्य अवगाहना होती है, उतना ही अवधि ज्ञान का जघन्य क्षेत्र परिमाण होता है। 1. नंदीचूर्णि के अनुसार पूर्व अवस्था की अपेक्षा जो उत्तरोत्तर बढ़ता है, वह वर्धमान अवधिज्ञान कहलाता है। यह वृद्धि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन चारों में होती है। वर्धमान अवधि को आचार्य मलयगिरि ने एक उपमा से समझाया है। जैसे प्रचुर शुष्क ईंधन डालने से अग्नि बढ़ती जाती है, वैसे ही प्रशस्त प्रशस्ततर अध्यवसायों के कारण उत्तरोत्तर बढ़ने वाला वर्धमान अवधिज्ञान कहलाता है। इसकी वृद्धि गुण-विशुद्धि सापेक्ष होती है। आवश्यक चूर्णि के अनुसार प्रशस्त अध्यवसाय से वर्धमान अवधिज्ञानी अधिक से अधिक अचित्तमहास्कंध तथा कम से कम परमाणु पुद्गल तक देखता है। भाष्यकार ने अवधिज्ञान की वृद्धि के दो कारण बताए हैंअध्यवसायों की शुद्धि तथा चारित्र की विशुद्धि। 1. नंदीचू पृ. 18; पुव्वावत्थातो उवरुवरि वड्डमाणं ति। 2. आवचू 1 पृ.४८; विसुद्धपरिणामगो ओहिणा परिवड्डमाणेण उवरिंजाव अचित्तमहाखंधो ताव पासति, हेट्ठा वि जाव परमाणू पोग्गला ताव पासति। 2. षट्खण्डागम में वर्धमान अवधि को शुक्लपक्ष के चन्द्रमण्डल से उपमित किया गया है। टीकाकार वीरसेन के अनुसार वर्धमान अवधिज्ञान बढ़ता हुआ केवलज्ञान की उत्पत्ति के पूर्व क्षण तक जा सकता है। 1. षट्ध पु.१३, 5/5/56, पृ. 293, 294 / 3. यह गाथा मूलत: आवश्यक नियुक्ति (28) की है। इसमें अवधिज्ञान के जघन्य क्षेत्र का परिमाण बताया गया है। अंगुल का असंख्यातवां भाग कितना सूक्ष्म होता है, इसे पनक के उदाहरण से बताया गया है। प्रथम और द्वितीय समय में पनक जीव की अवगाहना अत्यन्त सूक्ष्म होती है। चतुर्थ और पंचम आदि समयों में वह स्थूल हो जाती है इसलिए तृतीय समय में उसकी जितनी अवगाहना होती है, उतना क्षेत्र जघन्य अवधिज्ञान का विषय बनता है। षट्खण्डागम के अनुसार लब्धि से अपर्याप्त सूक्ष्म निगोद जीव की अवगाहना अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र है। इस प्रसंग में आचार्य महाप्रज्ञ ने आचार्य हरिभद्रसूरि और मलयगिरि द्वारा उल्लिखित सम्प्रदाय-भेद का वर्णन किया है-'हजार योजन लम्बा मत्स्य, जो अपने ही शरीर के बाह्य भाग के एक देश में उत्पन्न होने वाला है, वह प्रथम समय में अपने शरीर में व्याप्त सब आत्म-प्रदेशों की मोटाई को संकुचित करके प्रतर बनाता है। उस प्रतर की मोटाई अंगल के असंख्येय भाग प्रमाण तथा लम्बाई-चौडाई अपने देह प्रमाण होती है। दूसरे समय में उस प्रतर को संकुचित कर वह मत्स्य अपने देहप्रमाण लम्बाई-चौड़ाई वाले आत्म-प्रदेशों की सूची बनाता है। उस सूची की मोटाई-चौड़ाई अंगुल के असंख्येय भाग प्रमाण होती है। तीसरे समय में उस सूची को संकुचित कर अंगुल के असंख्येय भाग प्रमाण अपने शरीर के बाहरी प्रदेश में सूक्ष्म परिणति वाले पनक के रूप में उत्पन्न होता है। उत्पत्ति के तीसरे समय में पनक के शरीर का जितना प्रमाण होता है, उतने प्रमाण वाला क्षेत्र अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र है। इतने क्षेत्र में अवस्थित वस्तु जघन्य अवधिज्ञान का विषय बनती है।"२ आचार्य जिनभद्रगणि ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि महामत्स्य तीन समयों में आत्म-प्रदेशों का संकुचन करके अपने प्रयत्न विशेष से सूक्ष्म अवगाहना वाला होता है इसलिए महामत्स्य का उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। 1. विभा 595; पढम-बिईए अतिसण्हो जमइत्थूलो चउत्थयाईसु।तईयसमयम्मि जोग्गो, गहिओ तो तिसमयाहारो॥ 2. नंदी का टिप्पण पृ.६०, नंदीहाटी पृ. 26, नंदीमटी प. 91, 92 / 3. विभा 592-95 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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