________________ अनुवाद-जी-१ 53. (भगवान् अजितनाथ के समय उत्कृष्ट परिमाण में अग्निकायिक जीवों की उत्पत्ति हुई थी) उन सर्वाधिक अग्नि जीवों ने निरन्तर जितने क्षेत्र को व्याप्त किया था, सब दिशाओं में उतना परमावधि का क्षेत्र होता है। 54. अंगुल के असंख्येय भाग जितने क्षेत्र को देखने वाला अवधिज्ञान काल की दृष्टि से आवलिका के असंख्येय भाग तक देखता है। अंगुल के संख्येय भाग जितने क्षेत्र को देखने वाला आवलिका के संख्येय भाग तक देखता है। अंगुल जितने क्षेत्र को देखने वाला भिन्न आवलिका तक देखता है। काल की दृष्टि से एक आवलिका तक देखने वाला क्षेत्र की दृष्टि से अंगुलपृथक्त्व (दो से नौ अंगुल) क्षेत्र को देखता है। 55. एक हाथ जितने क्षेत्र को देखने वाला अंतर्मुहूर्त जितने काल तक देखता है। एक गव्यूत क्षेत्र को देखने वाला अंतर्दिवस काल (एक दिन से कुछ न्यून) तक देखता है। एक योजन जितने क्षेत्र को देखने वाला दिवसपृथक्त्व (दो से नौ दिवस) काल तक देखता है। पच्चीस योजन जितने क्षेत्र को देखने वाला अंत: पक्षकाल (कुछ कम एक पक्ष) तक देखता है। 56. भरत जितने क्षेत्र को देखने वाला अर्द्धमास काल तक देखता है। जंबूद्वीप जितने क्षेत्र को देखने वाला साधिक मास (एक महीने से कुछ अधिक) काल तक देखता है। मनुष्य लोक जितने क्षेत्र को देखने वाला एक वर्ष तक देखता है। रुचकद्वीप जितने क्षेत्र को देखने वाला वर्षपृथक्त्व (दो से नौ वर्ष) तक देखता है। 57. संख्येय द्वीप-समुद्र जितने क्षेत्र को देखने वाला संख्येय काल तक देखता है। असंख्येय काल तक देखने वाला असंख्येय द्वीप समुद्र जितने क्षेत्र को देख सकता है, पर इसमें भजना है। 58. (अवधिज्ञान के प्रसंग में) कालवृद्धि के साथ द्रव्य, क्षेत्र और भाव की वृद्धि निश्चित होती है। 1. इस गाथा में परमावधि के उत्कृष्ट क्षेत्र-परिमाण का निरूपण है। जब पांच भरत और पांच ऐरवत में मनुष्यों की संख्या पराकाष्ठा पर होती है, तब सबसे अधिक अग्नि के जीव होते हैं क्योंकि लोगों की बहुलता होने पर षचन-पाचन आदि क्रियाएं भी प्रचुर होती हैं। तीर्थंकर अजित के समय में अग्नि के जीव पराकाष्ठा प्राप्त थे क्योंकि उस समय मनुष्यों की संख्या अत्यधिक थी। मनुष्यों का आयुष्य लम्बा था। पुत्र-पौत्रों की संख्या अधिक थी। उस समय अग्निजीवों की उत्पत्ति में महावृष्टि आदि का व्याघात नहीं था। इस प्रकार सर्वबहु अग्निकाय के जीव सब दिशाओं में जितने क्षेत्र को व्याप्त करते हैं, वह परमावधि का उत्कृष्ट क्षेत्र है। विशेषावश्यक भाष्य में अवधिज्ञान के इस सामर्थ्य को एक कल्पना द्वारा समझाया गया है। 1. आवचू 1 पृ. 39 / २.विस्तार हेतु देखें विभा६०२-०४ एवं उसकी टीका, नंदी का टिप्पण पृ.६०,६१ तथा श्रीभिक्षु भा.१ पृ.५४,५५। 2. काल और क्षेत्र की वृद्धि के सम्बन्ध में दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा में कुछ मतभेद है। इस संदर्भ में विस्तार ___हेतु देखें ज्ञान मीमांसा पृ. 273-75 / 3. गा.५४ से 57 तक की चार गाथाओं में अवधिज्ञान का ज्ञेय क्षेत्र और उससे सम्बन्धित काल के बारे में विवेचन किया गया है। नंदी सूत्र की टीका में आचार्य हरिभद्र ने स्पष्ट निरूपण किया है कि क्षेत्र और काल का वर्णन उपचार की दृष्टि से प्रतिपादित है। इसका तात्पर्य यह है कि अवधिज्ञान क्षेत्र में स्थित दर्शन योग्य द्रव्यों एवं विवक्षित कालान्तरवर्ती पर्यायों को जानता-देखता है। आचार्य महाप्रज्ञ ने नंदी सूत्र में षट्खण्डागम में वर्णित समय-अवधि और क्षेत्र परिमाण का तुलनात्मक चार्ट प्रस्तुत किया है। 1. नंदीहाटी पृ. 27 / 2. देखें नंदी का टिप्पण पृ.६१।