________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श एक ही उपसर्ग अनेक अर्थों में प्रयुक्त हो सकता है। प्रस्तुत प्रसंग में प्रयुक्त उपसर्ग किस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, उसका भी भाष्यकार ने कहीं-कहीं निर्देश कर दिया है, जैसे * वि–विण्णाणाभावम्मि (गा. 227) •सं-सं एगीभावम्मी (गा. 657) * आ-आ मज्जाया (गा. 718) _ •णि-णिसद्दो तहाऽहिगत्थम्मि (गा. 809) भाष्यकार ने मूलसूत्र के प्रायः सभी शब्द का अर्थ स्पष्ट किया है। यहां तक कि 'पुण' आदि अवयवों का भी अर्थ स्पष्ट किया है। * पादू पगासणम्मी (गा. 1238) * पुणसद्दो तु विसेसणे (गा. 2597) भाष्यकार ने अनेक शब्दों के निरुक्त भी प्रयुक्त किए हैं, देखें परि. सं. 6 / उपमा, लौकिक दृष्टान्त, उदाहरण और न्याय के प्रयोग से भाषा में विचित्रता और सरसता पैदा हो गई है। भाष्यकार ने अनेक जटिल सैद्धान्तिक विषयों को भी नयी उपमाओं और दृष्टान्तों के माध्यम से समझाया है, देखें परि. सं.७। ग्रंथ में अनेक महत्त्वपूर्ण सूक्त और सुभाषितों का प्रयोग भी हुआ है, देखें परि. सं. 8 / कहीं-कहीं दो शब्दों के अर्थभेद को भी स्पष्ट किया है, देखें परि.सं.९। ' प्रसंगवश भाष्यकार ने स्वास्थ्य और चिकित्सा के तथ्यों को भी प्रस्तुत किया है, जो आयुर्वेद की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं, देखें परि. सं. 10 / भाष्यकार ने अनेक देशी शब्दों का प्रयोग भी किया है, देखें परि. सं. 11 / भाष्यकार ने प्रायः व्यास-विस्तृत शैली को अपनाया है। अनेक स्थलों पर उन्होंने द्वारगाथा में संक्षेप में विषयों का संकेत देकर फिर एक-एक द्वार की व्याख्या की है। . ... जहां भाष्यकार ने बृहत्कल्पभाष्य आदि की गाथाओं को अपने ग्रंथ का अंग बनाया है, वहां उन्होंने नियुक्ति और भाष्य सहित पूरे प्रकरण को उद्धृत कर दिया है। इससे कहीं-कहीं पुनरुक्ति भी प्रतीत हो सकती है क्योंकि प्रकाशित बृहत्कल्पभाष्य में नियुक्ति और भाष्य दोनों एक ग्रंथ हो गए हैं, जैसेराजपिण्ड की व्याख्या करने वाली गाथाएं (जीभा 1998-2014), जो बृहत्कल्पभाष्य (6381-97) से ली गई हैं। कथाओं का प्रयोग * किसी भी कथ्य को स्पष्ट करने के लिए कथाओं का प्रयोग प्राचीन शैली रही है। इसके द्वारा सरल और सरस शैली में अभिधेय को प्रकट किया जा सकता है। भाष्यकार का शैलीगत वैशिष्ट्य रहा है कि उन्होंने विषय के स्पष्टीकरण हेतु कथाओं का सहारा लिया है। पिण्ड के दोषों से सम्बन्धित प्रायः