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________________ 30 जीतकल्प सभाष्य प्राकृत के प्रकाण्ड विद्वान् थे। उनका वैदुष्य उनकी कृतियों में स्पष्टतया दृष्टिगत होता है। यद्यपि यह ग्रंथ सरल, सुबोध प्राकृत भाषा में लिखा गया है फिर भी संस्कृत भाषा का प्रभाव यत्र तत्र दृष्टिगोचर होता है। प्राकृत भाषा में संस्कृत विभक्ति एवं संधि के रूपों का प्रयोग भी कहीं-कहीं किया है, जैसे * भावतया (गा. 85) * मायया (गा. 146) * सोहय (गा. 145) * जद्दवी (गा. 130) जिनभद्रगणि को व्याकरण का भी अच्छा ज्ञान था। प्रसंगवश उन्होंने अनेक शब्दों की मूल धातु का उल्लेख किया है, जैसे-असु वावण धाऊओ (गा. 12), अस भोयणम्मि (गा. 13), तपु लज्जाए धातू (गा. 173), खिव पेरणे (गा. 227), धी धरणे (गा. 657), जीव त्ति पाणधरणे (गा. 704), अंचु गती पूजणयो (गा.७२९), जुजि जोगे (गा.७३२), गुपु रक्खणम्मि (गा. 784), दुत्ति दुगुंछा धातू (गा. 945), पिडि संघाते धातू (गा. 955), आस उवेसण धातू (गा. 981), अरह पूयाए धातू (गा. 982), जम उवरम (गा. 1107), वणि जायणम्मि धातू (गा. 1362) / ग्रंथकार ने संस्कृत संधि के साथ प्राकृत संधि का भी प्रयोग किया है। छंद की दृष्टि से जहां उन्हें मात्रा कम करनी थी, वहां दो या तीन शब्दों की संधि भी कर दी है। उदाहरणार्थ-दव्वस्सिणमो (गा. 2088) होतुवमा (गा. 2000), चत्तारेते (गा. 2034), तेहुवधी (गा. 2319) / जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण को कोश का भी अच्छा ज्ञान था। एक ही शब्द के लिए उन्होंने भिन्नभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न पर्यायवाची शब्दों का सटीक प्रयोग किया है, जैसे- रात्रि के लिए कालिया (गा. 359), सव्वरी (गा. 362), निसि (गा. 2529), राति (गा. 360) इसी प्रकार राजा के लिए पत्थिव (गा. 2569), णरीसर (गा. 2572), राया (गा. 2576), णराहिव (गा.), नरिंद (गा.) जिनभद्रगणि कुशल परिभाषाकार थे। दश प्रायश्चित्त के स्वरूप को प्रकट करने में उन्होंने सटीक परिभाषाएं प्रस्तुत की हैं। परिभाषाओं के लिए देखें परि. सं. 4 / महत्त्वपूर्ण शब्दों के एकार्थक लिखना भाष्यकार का भाषागत वैशिष्ट्य है। प्रसंगवश महत्त्वपूर्ण शब्दों के एकार्थकों का प्रयोग भी भाष्यकार ने किया है, देखें परि. सं.५। एक ही शब्द कितने अर्थों में प्रयुक्त होता है, उसका भी भाष्यकार ने कहीं-कहीं संकेत कर दिया है, जैसे-कल्पशब्द छह अर्थ में प्रयुक्त होता है'–१. सामर्थ्य 2. वर्णन 3. छेदन 4. करण 5. औपम्य और 6. अधिवास। 1. देखें जीभा 718-29 / 2. जीभा 2592 ; सामत्थे वण्णणाए य, छेदणे करणे तहा। ओवम्मे अहिवासे य, कप्पसद्दो तु वण्णितो।।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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