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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श व्याख्या रूप में लिखा गया है। स्वोपज्ञ भाष्य भी एक मात्र यही प्राप्त होता है। यद्यपि जिनभद्रगणि ने मूलसूत्र के प्रायः प्रत्येक शब्द की व्याख्या प्रस्तुत की है लेकिन यह केवल व्याख्याग्रंथ ही नहीं है, प्रासंगिक रूप से अनेक विषयों का वर्णन होने के कारण स्वतंत्र ग्रंथ जैसा हो गया है। उदाहरणार्थ प्रथम मंगलाचरण गाथा की व्याख्या 705 भाष्य गाथाओं में हुई है, जिसमें ज्ञान पंचक, पांच व्यवहार, अनशन, आचार्य की सम्पदा आदि का विस्तृत वर्णन है। इसी प्रकार 35 वी गाथा की व्याख्या 593 भाष्यगाथाओं में है। इनमें पिण्डैषणा से सम्बन्धित दोष एवं उनके प्रायश्चित्तों का वर्णन है। जिनभद्रगणि प्रकाण्ड दार्शनिक थे अतः उन्होंने कहीं-कहीं अन्य दार्शनिक मतान्तरों का उल्लेख भी इस ग्रंथ में किया है। इन्द्रिय प्रत्यक्ष के संदर्भ में उन्होंने वैशेषिक मत का उल्लेख करते हुए तर्क और हेतुओं से उसका खण्डन किया है। यह वर्णन उनके बाहुश्रुत्य को प्रकट करने वाला है। जीतकल्पसूत्र एवं उसका भाष्य एक आचार प्रधान ग्रंथ है अतः उन्होंने आचार के क्षेत्र में अन्य आचार्यों के मतभेदों का उल्लेख करके भी इस ग्रंथ को समृद्ध बनाया है, जैसे-प्रायश्चित्त के संदर्भ में उन्होंने संकेत किया है कि कुछ आचार्य वर्तमान में सभी प्रायश्चित्तों का लोप मानते हैं। लेकिन आज भी आठ प्रायश्चित्त विद्यमान हैं, इसकी उन्होंने अनेक हेतुओं एवं दृष्टान्तों से सिद्धि की है। इसी प्रकार अनवस्थाप्य तप के बाद उपस्थापना करने के सम्बन्ध में भी तीन परम्पराओं का अलग-अलग उल्लेख किया है। इस ग्रंथ को पढ़ने से एक प्रश्न उपस्थित होता है कि विशेषावश्यक भाष्य, विशेषणवती और बृहत्संग्रहणी जैसे गंभीर, दार्शनिक और समास-बहुल शैली में लिखे गए ग्रंथों को लिखने वाले आचार्य ने इतनी सरल और पुनरुक्त शैली में इस ग्रंथ की रचना कैसे की? इसका समाधान यही हो सकता है कि विशेषावश्यक भाष्य में उनको गंभीर दार्शनिक चर्चा करनी थी अतः उन्होंने उसी शैली को अपनाया लेकिन जीतकल्प और उसका भाष्य एक आचार परक ग्रंथ है अतः आचारपरक ग्रंथ को सरल, सुबोध और सहज भाषा में लिखना आवश्यक था, तभी वह सभी शिष्यों के हृदयंगम हो सकता था। जीतकल्प भाष्य में कहीं-कहीं पुनरुक्ति देखने को मिलती है, इसका कारण यह है कि उन्होंने मूल जीतकल्प की व्याख्या में भाष्य लिखा है अतः गाथा को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने उसी विषय की पुनरावृत्ति की है। कहीं-कहीं पुनरावृत्ति सहज है लेकिन कहीं-कहीं अधिक विस्तार भी प्रतीत होता है। भाषा शैली का वैशिष्ट्य .. जीतकल्पभाष्य प्राकृत महाराष्ट्री भाषा में रचित पद्यमयी व्याख्या है। जिनभद्रगणि संस्कृत और २.जीभा 14-18 // ३.जीभा 2028-34 / १.बीभा 256 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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