________________ 178 जीतकल्प सभाष्य है, उसका पालन दुष्कर है-इस प्रकार के वचनों का प्रयोग करने से तीर्थंकरों की आशातना होती है। 2. प्रवचन आशातना-आक्रोश और तर्जना से संघ पर आक्षेप करना तथा यह कहना कि सियार, ढंक आदि के भी समूह होते हैं, वैसे ही यह संघ है। 3. श्रुत आशातना-आगमों में व्रत, प्रमाद तथा षट्काय आदि का वर्णन बार-बार एक जैसा आया है, यह अनुपयुक्त है। आगमों में ज्योतिष्विद्या तथा निमित्त-विद्या का वर्णन निष्प्रयोजन है, इससे मुनि को क्या लेना-देना? इस प्रकार कहना श्रुत की आशातना है।' 4. आचार्य आशातना -आचार्य स्वयं तो ऋद्धि, रस और सुविधा से युक्त जीवन जीते हैं लेकिन हमको कठोर जीवन और उग्र विहार का उपदेश देते हैं। ब्राह्मणों की भांति केवल अपना पोषण करते रहते हैं, ऋद्धियों के आधार पर जीते हैं फिर भी कहते हैं कि हम अप्रतिबद्ध हैं, इस प्रकार बोलने से आचार्य की आशातना होती है। 5, 6. गणधर और महर्द्धिक आशातना-इसी प्रकार तीर्थंकर के प्रथम शिष्य गणधर और महर्द्धिक की आशातना के बारे में समझना चाहिए। इनमें तीर्थंकर और संघ की देशतः या सर्वतः आशातना करने पर पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। श्रुत, आचार्य और महर्द्धिक की देशतः आशातना से प्रत्येक का चतुर्गुरु तथा सर्व आशातना से पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। एक भी प्रथम शिष्य-गणधर की आशातना से पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसका कारण यह है कि तीर्थंकर अर्थ के प्रणेता होते हैं और गणधर सूत्र के प्रणेता। प्रतिसेवना पाराञ्चिक __ बृहत्कल्पसूत्र के अनुसार तीन कारणों से साधु पाराञ्चित प्रायश्चित्त को प्राप्त करते हैं१. दुष्ट पाराञ्चिक-कषाय और विषय से दूषित। 2. प्रमत्त पाराञ्चिक-स्त्यानर्द्धि निद्रा लेने वाला। 3. अन्योन्यप्रतिसेवी पाराञ्चिक-गुदा और मुख से आपस में मैथुन सेवन करने वाला। जीतकल्पभाष्य में ये तीनों प्रतिसेवना पारांचित के भेद हैं।" दुष्ट पाराञ्चिक दुष्ट पाराञ्चिक दो प्रकार का होता है-१. कषायदुष्ट 2. विषयदुष्ट / कषायदुष्ट दो प्रकार का होता है-स्वपक्ष दुष्ट और परपक्ष दुष्ट / १.जीभा 2466-68 / 2. जीभा 2469 / ३.जीभा 2470 / 4. जीभा 2471, 2472 / 5. बृभा 4983, 4984, जीभा 2473, 2477 / 6. कसू 4/2 / 7. जीभा 2480 / ८.जीभा 2481 /