________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 177 आदि के द्वारा क्रमश: अपराध को पार पाया जाता है, वह पाराञ्चित प्रायश्चित्त है। इसका दूसरा निरुक्त करते हुए आचार्य कहते हैं कि जो प्रायश्चित्त के पार को प्राप्त है अर्थात् अंतिम प्रायश्चित्त है, वह पाराञ्चित है।' इस तप की पूर्णता से साधु अपूजित नहीं होता अपितु श्रमण संघ में पूजित होता है, वह पाराञ्चिक/पाराञ्चित प्रायश्चित्त है। इस योग से प्रायश्चित्तवहन कर्ता साधु पाराञ्चिक कहलाता है। यदि कुल से निकालकर पाराञ्चित दिया जाता है तो वह साधु कुल पाराञ्चिक, गण से निकालने पर गण पाराञ्चिक तथा संघ से निकालने पर संघ पाराञ्चिक कहलाता है। पाराञ्चित के प्रकार अनवस्थाप्य की भांति पाराञ्चित प्रायश्चित्त दो कारणों से मिलता है अत: कारण में कार्य का उपचार करके पाराञ्चित प्रायश्चित्त के दो भेद होते हैं -1. आशातना पाराञ्चित 2. प्रतिसेवना पाराञ्चित। आशातना और प्रतिसेवना- दोनों के दो-दो भेद हैं-जघन्य और उत्कृष्ट। आशातना पाराञ्चिक जघन्यतः छह मास और उत्कृष्टतः एक वर्ष तक गच्छ से निर्मूढ़ रहता है। प्रतिसेवना पाराञ्चिक जघन्यतः एक वर्ष और उत्कृष्टतः बारह वर्ष तक संघ से निर्मूढ़ रहता है। आशातना और प्रतिसेवना-दोनों पाराञ्चित सचारित्री और अचारित्री दोनों प्रकार के हो सकते हैं। किसी अपराध पद का सेवन करने से सारा चारित्र नष्ट हो जाता है तथा किसी अपराध-सेवन से चारित्र का एक देश रह जाता है। इसका कारण परिणामों की तीव्रता, मंदता अथवा अपराध की गुरुता और लघुता है।" आशातना पाराञ्चिक आशातना के छह स्थान हैं -तीर्थंकर, प्रवचन, श्रुत, आचार्य, गणधर और महर्द्धिक / जो इनकी आशातना करता है, वह आशातना पाराञ्चिक कहलाता है। . 1. तीर्थंकर आशातना- तीर्थंकर देवों द्वारा रचित समवसरण की अनुमोदना करते हैं, यह ठीक नहीं है। वे अतिशायी ज्ञान युक्त होने के कारण संसार के स्वरूप को जानते हैं, फिर भोगों को क्यों भोगते हैं? स्त्री होने के कारण मल्लिनाथजी को तीर्थंकर कहना अयुक्त है। तीर्थंकरों ने बहुत कठोर चर्या का निरूपण किया 1. जीभा 729 / 3. बृभा 4971 टी पृ. 1330 / 2. (क) जीभा 2540, प्रसाटी प. 218 ; यद्वा पारं-अंतं 4. जीभा 2514 / प्रायश्चित्तानां तत उत्कृष्टतरप्रायश्चित्ताभावादपराधानां ५.बृभा 5032 / वा पारमंचति-गच्छतीत्येवंशीलं पाराञ्चि तदेव ६.बृभा 4972 / पाराञ्चिकमिति। 7. बृभा 4973 (ख) बृभा 4971 टी पृ. 1330 ; अपश्चिमं प्रायश्चित्तं... सव्वचरित्तं भस्सति, केणति पडिसेवितेण तु पदेणं। तत् पाराञ्चिकं पाराञ्चितं वाभिधीयते। कत्थति चिट्ठति देसो, परिणामऽवराहमासज्ज।।