________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 179 कषाय दुष्ट पाराञ्चिक कषाय दुष्ट में स्वपक्ष दुष्ट के भाष्यकार ने चार दृष्टान्त प्रस्तुत किए हैं।' दृष्टांतों में शिष्य का क्रोध चरम सीमा पर वर्णित है। गुरु के अनशन स्वीकार करने पर भी उनका क्रोध शान्त नहीं हुआ। प्रथम दृष्टान्त में कुपित शिष्य ने गुरु के मृत कलेवर के दांतों का भञ्जन कर दिया। दूसरे दृष्टान्त में शिष्य ने क्रुद्ध होकर गुरु का गला दबा दिया। तृतीय दृष्टान्त में शिष्य ने गुरु के मृत शरीर से दोनों आंखें निकाल दी तथा चतुर्थ दृष्टान्त में शिष्य ने आवेश में आकर गुरु के मृत कलेवर को डंडे से पीटा। जो स्वपक्ष में दुष्ट होता है, उसको लिंग नहीं दिया जाता। अतिशयज्ञानी भविष्य को जानकर उसे लिंग दे सकते हैं। जो राजा अमात्य आदि के वध में परिणत है, वह परपक्ष दुष्ट होता है, यह भी लिंगतः पाराञ्चिक होता है। यदि आचार्य भी राजवध में सहयोगी हैं तो उन्हें भी पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसी प्रकार जो श्रावक या अश्रावक स्वपक्ष या परपक्ष में दुष्ट हैं, उन्हें भी लिंग नहीं दिया जाता। अतिशयधारी उसे लिंग दे सकते हैं। दूसरे आदेश के अनुसार जो राजा, युवराज अथवा धनाढ्य आदि का वध करने वाला है, उसको स्वदेश में दीक्षा नहीं दी जाती, कषाय उपशान्त होने पर अन्य देश में दीक्षित किया जा सकता विषय दुष्ट पाराञ्चिक विषय दुष्ट की भी स्वपक्ष और परपक्ष की दृष्टि से चतुर्भगी होती है। प्रथम भंग-स्वपक्ष स्वपक्ष-संयत की तरुणी संयती में आसक्ति। द्वितीय भंग-स्वपक्ष परपक्ष –संयत की शय्यातर की लड़की या परतीर्थिक साध्वी में आसक्ति। तृतीय भंग-परपक्ष स्वपक्ष-गृहस्थ की तरुणी साध्वी में आसक्ति। * चतुर्थ भंग-परपक्ष परपक्ष-गृहस्थ की गृहस्थ स्त्री में आसक्ति। - इस चतुर्भंगी में प्रथम और द्वितीय भंग से ही साधु का सम्बन्ध है, इनको लिंग विवेक रूप पाराञ्चित प्रायश्चित्त मिलता है। तीसरे और चौथे भंग में विकल्प से अर्थात् उपशान्त होने पर अन्य देश में लिंग दिया जा सकता है। भाष्यकार के अनुसार यदि लिंग युक्त साधु लिंग युक्त समणी के साथ प्रतिसेवना करता है तो साधु के नरक आयुष्य का बंध होता है। वह सभी तीर्थंकरों की आर्याओं तथा संघ की आशातना करता है। आशातना से अबोधि प्राप्त होती है और वह अनंत संसार में परिभ्रमण करता रहता है। प्रकट रूप में प्रतिसेवना करने वाले को लिंग पाराञ्चित दिया जाता है। 1. दृष्टान्तों के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 59-62 / 4. बृभा 4996 / 2. जीभा 2483-89, बृभा 4988-93 / 5. बृभा 5006, 5007 टी पृ. 1337 / 3. जीभा 2503, बृभा 4994 / 6. जीभा 2508-11 /