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________________ 180 जीतकल्प सभाष्य विषय दुष्ट को उपाश्रय, क्षेत्र आदि से पाराञ्चिक किया जाता है। यदि वह विषय दोष से उपरत नहीं होता है तो उसे लिंग पाराञ्चित प्रायश्चित्त दिया जाता है। विषय प्रतिसेवना में यदि वह सामान्य स्त्री के साथ प्रतिसेवना करता है तो उसे अंतिम पाराञ्चित प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता, यदि वह पटरानी के साथ प्रतिसेवना करता है तो उसे क्षेत्र और लिंग दोनों से पाराञ्चिक किया जाता है। इसका कारण बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि अग्रमहिषी के साथ प्रतिसेवना करने पर कुल, गण, संघ और स्वयं का भी विनाश हो सकता है लेकिन सामान्य महिलाओं के साथ प्रतिसेवना करने पर स्वयं के चारित्र का विनाश तथा शरीर की हानि होती है। प्रमत्त पाराञ्चिक प्रमाद के कारण जिसको अंतिम प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह प्रमत्त पाराञ्चिक कहलाता है। प्रमत्त पांच प्रकार का होता है 1. कषाय प्रमत्त-क्रोध आदि चार कषायों से प्रमत्त। 2 विकथा प्रमत्त-स्त्री कथा, राजकथा आदि में प्रमत्त। * 3. मद्य प्रमत्त-पूर्वाभ्यास के कारण मद्य सेवन में प्रमत्त / 4. इंद्रिय प्रमत्त-श्रोत्र आदि पांच इंद्रिय-विषयों में प्रमत्त। 5. निद्रा प्रमत्त-स्त्यानर्द्धि निद्रा के कारण प्रमत्त। यहां मुख्यतः स्त्यानर्द्धि निद्रा प्रमत्त का प्रसंग है। जैसे जमी हुई बर्फ और घी में कुछ भी दिखाई नहीं देता है, वैसे ही जिस निद्रा में व्यक्ति का चित्त प्रगाढ़ मूर्छा से जड़ीभूत हो जाता है, कुछ भान नहीं रहता, वह स्त्यानर्द्धि निद्रा है। इस निद्रा के उदयकाल में व्यक्ति के भीतर वासुदेव से आधा बल आ जाता है। यह बात प्रथम संहनन की अपेक्षा से है। वर्तमान में यह कहा जा सकता है कि इस निद्रा में चार गुना बल आ जाता है। भाष्यकार ने स्त्यानर्द्धि निद्रा के पांच उदाहरण दिए हैं–१. पुद्गल-मांस 2. मोदक 3. कुम्भकार 4. दांत 5. वटवृक्ष। इन उदाहरणों के विस्तार हेतु देखें परि 2, कथा सं. 65-69 / जैसे ही आचार्य को ज्ञात होता है कि अमुक साधु स्त्यानर्द्धि निद्रा वाला है तो वे उसे कहते हैं कि तुम लिंग छोड़ दो क्योंकि तुम्हारे अंदर चारित्र नहीं है। अब तुम देशव्रत धारण करके श्रावक बन जाओ या 1. जीभा 2522-24 / 2. जीभा 2525 / 3. जीभा 2528 / 4. जीभा 2534 / ५.निचू 1 पृ.५६। 6. जीभा 2527-33, बृभा 5018-22 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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